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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य
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शारीरिक परिवर्तन होता है, वे शरीर की विविध भाव-भंगिमाएँ क्रोध को व्यक्त करती हैं। भाव क्रोध मानसिक अवस्था है, वह अनुभूत्यात्मक पक्ष है। अनुभूत्यात्मक पक्ष भाव क्रोध है और क्रोध का अभिव्यक्त्यात्मक पक्ष द्रव्य क्रोध है। एकेन्द्रिय आदि सभी सांसारिक जीवों में तीव्रतम, तीव्रतर आदि सभी प्रकार के क्रोध रहते हैं, पर अभिव्यक्ति का साधन स्पष्ट न होने से उनकी अनुभूति दूसरे व्यक्ति नहीं कर पाते । क्रोध को तरह मान भी एक आवेग है । मान के कारण व्यक्ति स्वयं को महान और दूसरों को हीन समझता है । मान के कारण भी आत्मा अनेक अनर्थ समय-समय पर करता रहा है। उसके भी तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और अल्प-ये चार भेद हैं । क्रोध में व्यक्ति अपने प्रतिद्वन्द्वो को नष्ट करना चाहता है तो मान में अपने से छोटा बनाकर, अपने अधीन रखना पसन्द करता है। यही क्रोध और मान में अन्तर है । कषाय का तीसरा प्रकार माया है। माया का अर्थ कपट है । जहाँ कपट है, वहाँ पर सरलता का अभाव रहता है । कपट शल्य है, इस शल्य के कारण साधना में प्रगति नहीं होती। और, चौथा प्रकार कषाय का लोभ है। लोभ को पाप का बाप कहा गया है । वह समस्त सद्गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है1, सम्पूर्ण दुःखों का मूल है । क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का माया से मित्रता का और लोभ से सभी सद्गुणों का नाश होता है । लोभ सभी कषायों में निकृष्टतम है । क्रोध वर्तमान जन्म और आगामो जन्म, दोनों के लिये, भय समुत्पन्न करता है।' लोभ के वशीभूत होकर प्राणो सदैव दुःख उठाता रहा है। इसीलिये ज्ञानियों ने कहा कि जन्म मरण रूपी वृक्ष का सिञ्चन करने वाले कषायों का परित्याग करना चाहिये। सहज जिज्ञासा हो सकती है-इन आवेगों पर किस प्रकार नियन्त्रण किया जाये ? पाश्चात्य दार्शनिक स्थीनोजा का अभिमत है कि कोई भी आवेग अपने विरोधी और अधिक सशक्त आवेग के द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है, और उसे नष्ट भो किया जा सकता है। आचार्य शय्यम्भव ने भी इसी बात को अपने शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-'शान्ति से क्रोध पर, मृदुता से मान पर, सरलता से माया पर और सन्तोष से लोभ पर विजय-पताका फहराई जा
१ योगशास्त्र ४/१०, १८
२ दशवकालिक ८/३८ ३ उत्तराध्ययन ९/५४ ४ स्पोनोजा नीति, अनुवादक-दीवानचन्द्र, हिन्दी समिति उ० प्र०, ४/७
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