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३६६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव की अभिधा से अभिहित किए गए हैं। वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं-'प्रत्येक शरीरी' और 'साधारण शरीरी'2 | जिन वनस्पतिकायिक जीवों का अलग-अलग शरीर होता हैवे प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक शरीर कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में एक शरीर में एक जीव रहने वाले को प्रत्येक शरीरी वनस्पति कहा है। आचार्य ने मिचन्द्र ने प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित की अपेक्षा से वनस्पतिकायिक जीब के दो भेद किए हैं। इन दोनों में मुख्य अन्तर यही है कि प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के आश्रय में अन्य अनेक साधारण जीव रहते हैं, पर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के आश्रित अन्य निगोदिया जीव नहीं रहते। उत्तराध्ययन में प्रत्येक शरीरी वनस्पति के बारह प्रकार बताए हैं। साधारण शरीर नामकर्म के उदय से जिन अनन्त जीवों का एक ही शरीर होता है, उन्हें साधारण वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं । साधारण शरीर जीवों का आहार, श्वासोच्छ्वास, उनकी उत्पत्ति, उनके शरीर की निष्पत्ति, अनुग्रह, साधारण ही होते हैं।' एक जीव की उत्पत्ति से सभी जीवों की उत्पत्ति और एक के मरण से सभी का मरण होने से साधारण शरीरी वनस्पति जीव निगोदिया जीव के नाम से भी जाने जाते हैं 110 निगोदिया जोव संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं । स्कन्ध, अण्डर (स्कन्धों के अवयव) आवास (अण्डर के अन्दर रहने वाला भाग), पुलविका (भीतरी भाग) निगोदिया से जीवों का वर्णन किया गया है ।11
१ गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा १८५ २ षट्खण्डागम १/१/१/४१
३ धवला १/६/१/४१ ४ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, जीव तत्व प्रदीपिका, १८५ ५ गोम्मटसार, जीव प्रदीपिका टीका, गाथा १८५ ६. गोम्मटसार, जीव प्रदीपिका टीका, गाथा १८६ ७ उत्तराध्ययन ३६/६५-६६ ८ (क) धवला १३/५/५/१०१ (ख) सर्वार्थसिद्धि, ८/११ ६ षट्खण्डागम १४/५/६/१२२-१२५ १० कार्तिकेयानुप्रक्षा टीका, गाथा १२५ ११ धवला १४/५/६/६३
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