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________________ ३८८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा दोनों की प्राप्ति में सहयोगी बनता है । जबकि अभव्य प्राणी के लिये, यह सिर्फ संसार-वृद्धि का ही कारण होता है। प्रायः, यह कुटुम्ब, प्राणी के दूसरे कुटुम्ब के सदस्यों-क्रोध, मान, माया आदि को परिपुष्ट करने वाला होने से संसारवृद्धि का ही कारण बनता है । जब, कोई प्राणी, अपने प्रथम प्रकार के कुटुम्ब का अनुसरण/अनुगमन करता है, तब, यह भी, उसके पोषण में सहयोगी बन जाता है, और इस तरह, मोक्ष दिलाने में कारण बनता है। इसी तरह के तमाम विवेचनों से भरा-पूरा है यह महाकथा ग्रन्थ । धर्म और दर्शन, खासकर जैनधर्म/दर्शन के हर प्रसङ्ग को सिद्धर्षि ने छुआ भर नहीं है, बल्कि उसकी ऐसी स्पष्ट अवतारणा अपने पात्रों में कर दी है, जिससे यह प्रतीत होने लगता है कि, पाठक, कोई कथा नहीं पढ़ रहा है, बल्कि, कथा के पात्रों की घटनाओं को अपने बहिरंग और अंतरंग परिवेश से प्रत्यक्ष घटित होता अनुभव करता है। तीसरे प्रस्ताव से लेकर सातवें प्रस्ताव तक कुल पाँच प्रस्तावों में, हिसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह एवं स्पर्शन, रसन, चक्ष , घ्राण और श्रोत्र में से एक-एक को ले कर, एक-एक प्रस्ताव में इनके समग्र स्वरूप की स्पष्ट, सहज और सरल रूप में व्याख्या की है । और, इन सबके संसर्ग/संपर्क से होने वाले दुष्परिणामों को, कई-कई कथानकों के द्वारा व्याख्यायित किया है। इन पांचसात प्रस्तावों में, धर्म और दर्शन के व्यावहारिक आचरण का एक-एक रोम तक व्याख्यायित होने से नहीं बच पाया। इसके अलावा भी, प्रसंगवश जिन विषयों शास्त्रों की विवेचना की गई है, उनमें आयुर्वेद, ज्योतिष, स्वप्न-शास्त्र, निमित्त-शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, धातुविद्या, युद्धनीति, राजनीति. गृहस्थ धर्म, मनोविज्ञान दुर्व्यसन, विनोद, व्यग्य आदि प्रमुख हैं। इन सबको, सिद्धर्षि ने जीवन-घटनाओं के सांसारिक/नैतिक/आध्यात्मिक विवेचन में, जीभर कर उपयोग में लिया है। जिससे, यह स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि वे, मात्र दर्शन/धर्म के ही मर्मज्ञ नहीं थे, बल्कि, उनकी उदात्त ज्ञानसमृद्धि-चतुर्मखी/बहुमुखी थी। 'उपमिति-भव-प्रपंच कथा' मात्र दार्शनिक/आध्यात्मिक विषयों को ही स्वयं आत्मसात नहीं किये है, बल्कि इसमें शृङ्गार, वीर, रौद्र, हास्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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