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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य
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धार्मिक नाटक यूरोप में तो बन्द हो गये, किन्तु, भारत में इनकी धारा / परम्परा शताब्दियों से जन-पन रज्जन करती चली आ रही है ।
भारतीय वाङमय में, विशेषकर संस्कृत साहित्य में रूपक/ प्रतीक पद्धति पर लिखे गये ग्रन्थों का, यह संक्षिप्त इतिहास है । जिसके अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है कि उपमान -उपमेय पद्धति का सहारा लेकर, संशय, मोह, भ्रम, अज्ञान आदि से ग्रस्त जीवात्माओं को प्रबोध देने की परम्परा काफी कुछ प्राचीन है । किन्तु विस्तृत या वृहदाकार ग्रन्थ की सर्जना, इस पद्धति के बल पर करने का साहस, सिद्धर्षि से पहिले, कोई भी नहीं कर सका । हाँ, इससे पूर्व श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में, पुरंजन का आख्यान अवश्य मिलता है । पुरंजन की विषयासक्ति ने उसे जो भव- भ्रमण कराया है, उसी का विवेचन इस आख्यान में है । दरअसल, यह पुरंजन, स्व-स्वरूप को भूलकर, स्त्री-स्वरूप पर इतनी गाढ़ आसक्ति बना लेता है कि उसी के दिन-रात चिन्तन की बदौलत, अगले जन्म में, उसे खुद स्त्री रूप की प्राप्ति होती है । पुरंजन का भव- विस्तार चार अध्यायों में, कुल १८९ श्लोकों में वर्णित है ।
इस वर्णन में बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, प्राण, वृत्ति, स्वप्न, सुषुप्ति, शरीर और उसके नव-द्वार आदि के रोचक रूपक दर्शाये गये हैं । यहाँ, पुरंजन को ब्रह्मस्वरूप हंसात्मा बतलाया गया है और स्व-बोध के अभाव को पति वियोग के रूप में चित्रित किया गया है । अन्त में, इस सारी रूपक कथा का रहस्य स्पष्ट किया गया है ।
यह कथानक, बहुत लम्बा तो नहीं है, किन्तु इसमें जो-जो भी रूपक, जिस-जिस रूप में दिये गये हैं, वे सटीक, सार्थक और मनोहारी हैं । बावजूद इसके, इस वर्णन को, कथाचरित की उस श्र ेणी में नहीं रखा जा सकता, जिस श्रेणी में सिद्धर्षि ने उपमिति भव-प्रपञ्च कथा को पहुंचाया है । इसलिये, पूर्वोक्त रूपक परम्परा के सन्दर्भ में, 'उपमिति भव प्रपञ्च कथा को, भारतीय रूपक साहित्य का 'आद्य ग्रन्थ' मानना पड़ेगा ।
उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा : विशेषताएं
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सोलह हजार श्लोक परिमाण वाली इस गद्य-पद्य मिश्रित रूपक कथा का महत्व, इसका सम्पादन करते हुए. लब्ध- ख्याति पाश्चात्य मनीषी
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