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________________ मन की व्यथा हरने के लिए ही हुआ है, होता है, भले ही शैली व संयोजना भिन्न-भिन्न रही हों। मानव सभ्यता का सबसे प्राचीन साहित्य वेद और आगम माना है, बौद्ध परम्परा में त्रिपिटिक का भी वही स्थान है । इन सबकी संयोजनशैली में "कथा-शैली" के स्पष्ट दर्शन होते हैं। - जैन आगमों में कथा के दो रूपों का निरूपण है-कथा और विकथा। विकथा-अर्थात व्यर्थ की कथा, विकारवर्धक, विषयोत्तेजक कथा, जिससे मानव की अन्तर्वृत्तियाँ मलिन और दूषित होती हैं। कथा के विविध भेदों में नीति-कथा तथा धर्म-कथा का महत्व है । यूं अर्थकथा, कामकथा तथा मिश्रकथा का भी वर्णन आता है । दिव्य-कथा, मानुष-कथा, परीकथा, पशु कथा भी पात्रों के आधार पर चलती रही है । शैली व विषय की दृष्टि से भी कथा के अनेक-भेदोपभेद किये गये हैं, किन्तु कुल मिलाकर वही कथा उपादेय मानी गई है, जिसके सुनने से मनुष्य का मनोरंजन, मनःसंशोधन, सद्गुण-विकास, नीति एवं धर्म का बोध तथा आचरण की अच्छाई-बुराई का परिज्ञान होता है। ___ "कथा" की यात्रा भी मानव-यात्रा के समान ही सुदूर अतीत के साथ जुड़ी हुई है, अतः उसका आदि छोर पकड़ पाना तो किसी के लिए संभव नहीं लगता, फिर भी उपलब्ध साहित्य के अनुशीलन से हम वेद और आगम साहित्य में आदि कथाओं को देख सकते हैं। प्रस्तुत में हमने जैन कथा साहित्य को ही अपना लक्ष्य बनाया है और उसी आधार पर कथा साहित्य की विकास-यात्रा की परिक्रमा की है। "कथा" के विविध रूप/स्वरूप का अवलोकन व अनुसंधान करने के लिए प्राचीन जैन साहित्य बहुत बड़ा आधार है। मानव सभ्यता के आदि युग में भगवान ऋषभदेव के पूर्व ही कुलकर युग से कथा साहित्य का प्रारम्भ होता है । कुलकर कथा के बाद ऋषभदेव का चरित्र और उस चरित्र को संवर्धित करने वाली पूर्व जन्मों की रोचक कथाएँ जैन साहित्य में अंकित की गई है। ये कथाएँ मानव सभ्यता का विकाससूत्र समझने के लिए तो अत्यन्त उपयोगी हैं ही, साथ ही ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से भी मानव कितना कल्पनाशील था, कितना सृजनधर्मी था। यह उन कथाओं के आधार पर समझा जा सकता है। जैन परम्परा में कथा साहित्य का सबसे प्राचीन स्रोत आगम है। आगमों में अनेक प्रकार की कथाशैलियाँ मिलती हैं। कथा के विविध पात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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