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आत्मा को कहाँ और कंसे खोजें | ७१
साग में डाला हुआ नमक दिखाई नहीं देता, परन्तु साग खाने पर उसके स्वाद पर से अनुभव होता है कि यह नमक है । इसी प्रकार शरीरस्थित आत्मा आँखों से या अन्य इन्द्रियों से नहीं दिखाई देती किन्तु इन्द्रियों द्वारा जानने-देखने आदि क्रिया को देखने से, पूर्वगृहीत विषयों की स्मृति से तथा पूर्व जन्म - पुनर्जन्म आदि के स्मरण से आत्मा का अनुभव होता है । जिस प्रकार साग में रहा हुआ नमक साग नहीं बन जाता, न ही साग का आकार या गुणधर्म अपनाता है, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर में रहने पर भी शरीराकार नहीं बनती, न ही शरीर के गुणधर्मों को अपनाती है ।
इसी प्रकार आत्मा कहती है कि मैं अनादिकाल से शरीर के साथ हूँ, शरीर में स्थित रहती हूँ। छोटा-बड़ा जैसा शरीर होगा, उसमें उसी रूप में रहती हूँ । हाथी का शरीर हो तो उसमें उतनी बड़ी होकर और कुन्थुवा का शरीर हो तो उसमें उतनी छोटी होकर रहती हूँ । जैसा छोटा-बड़ा शरीर बदलता है, मैं उसमें उसी रूप में समाविष्ट हो जाती | परन्तु इतना होने पर भी मैं देहरूप नहीं बन जाती और भविष्य में भी कभी बनूंगी नहीं। मैं शरीर में रहते हुए भी आँख से दिखाई नहीं देती, न ही अन्य इन्द्रियों से ज्ञात होती हूँ बल्कि मैं तो स्व-पर- प्रकाशक हूँ । मुझे देखने के लिए उसी प्रकार दूसरे किसी प्रकाश की जरूरत नहीं जिस प्रकार रत्न या दीपक को देखने के लिए दूसरे किसी प्रकाश की जरूरत नहीं रहती । मैं तो स्वयं ज्योतिस्वरूप हूँ । मेरे ऐसे प्रकट चैतन्य लक्षण से ही मुझे जाना जा सकता है ।
मुझे जानने-पकड़ने की भी एक विशिष्ट पद्धति है, मैं यों की यों सीधी पकड़ में नहीं आती । जिस प्रकार कोयले के अंगारे को हाथ से सीधा नहीं पकड़ा जाता, उसको पकड़ने के लिए चींपिये की जरूरत होती है, उसी प्रकार मुझे ( आत्मा को ) पकड़ने के लिए भी ज्ञानोपयोगरूपी चींपिये की जरूरत पड़ती है । परन्तु मुझे पकड़ सकता है कोई सज्जन पुरुष ही । सतु + जन = सज्जन का फलितार्थ है - जिसे सत् ( त्रिकाल स्थायी आत्मा को जानने की तीव्रता - उत्सुकता है - वही व्यक्ति । ऐसे सज्जन पुरुष का उपयोग जागृत होता है, इसलिए वही मुझे (आत्मा को ) पकड़ सकता है ।
पानी में रही हुई बिजली और दूध में रहा हुआ मक्खन ऐसे ही हस्तगत नहीं हो जाते । ये दोनों प्रयोग = पुरुषार्थ द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं । पानी में से बिजली प्राप्त करने के लिए कितना भगीरथ पुरुषार्थ
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