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आत्मा को कहाँ और कैसे खोज | ६७ (कर्म और शरीर रूपो) धूल आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकती। इस प्रकार जो आत्मा को जाने और अन्तर् में देखने का प्रयत्न करे तो वह दिखाई देती है। यद्यपि स्फटिक की प्रतिमा तो इन आँखों से दिखाई देती है, हाथों से छुई जा सकती है, अर्थात्-इन्द्रियगोचर हो सकती है, किन्तु आत्मा = शुद्ध आत्मा ज्ञानानन्दमूर्ति है, वह इन्द्रियों द्वारा जानी-देखी नहीं जा सकती, किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान-दर्शन रूपी चक्षु से जानी-देखो जा सकती है।
आत्मा को कहाँ देखें? परमानन्द पंचविंशति में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा हैनलिन्यां च यथा नीरं भिन्न तिष्ठति सर्वदा । अयमात्मा स्वभावेन देहे तिष्ठति सर्वदा ॥७॥ पाषाणेषु यथा हेमं, दुग्धमध्ये यथा घृतम् । तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये तथा शिवः ॥२४॥ काष्ठमध्ये यथा वह्निः शक्तिरूपेण तिष्ठति ।
अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः ।।२।।
अर्थात्-जिस प्रकार कमलिनी जल में रहती हुई भी जल से सदा पृथक् रहती है, इसी प्रकार यह आत्मा देह में रहती हुई भी देह से सर्वदा भिन्न स्वभाव में स्थित रहती है।
जिस प्रकार पाषाणों में सोना रहता है, दूध में घी रहता है, तिलों में तेल रहता है, परन्तु सोना, घी, या तेल मर्दन करने, मथने या पीलने पर ही निकल सकते हैं, इसी प्रकार आत्मा भी शरीर में स्थित रहती है। परन्तु शरीरजनित विकारों से पृथक् करके शुद्ध आत्मा को विवेक की मथनी से मथने पर ही वह प्रतीत हो सकती है। जैसे अरणि को लकडी में अग्नि शक्ति रूप से रहती है, इसी प्रकार यह आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों में स्व शक्तिरूप में स्थित रहती है। अरणि के काष्ठ को परस्पर रगडने पर ही अग्नि प्रकट होती है, इसी प्रकार शरीर में स्थित आत्मा की शक्ति
१ (क) केन उपनिषद् में भी कहा है-न तत्र चक्षुर्गच्छति, न वाग्गच्छति, नो मनः ।
-केनोपनिषद् खण्ड १, कण्डिका ३ (ख) तक्का तत्थ न विज्जइ, मइ तत्थ न गाहिया ।-आचारांग ११५। सू० ५६२ २ परमानन्द पंचविंशति श्लोक ७, २४, २५
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