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________________ ६६ | अप्पा सो परमप्पा कालीन मानव जीवन में अन्तर में विराजमान आत्मदेवता को खोजना, देखना और पाना अधिक सार्थक है, इसमें श्रम और समय भी कम लगता है। बाहर के जड़जगत के वैभव की अपेक्षा अन्तर का आत्मिक वैभव बहत अधिक मूल्यवान, आनन्दप्रद एवं शक्तिप्रदायक है। अतः बाह्य जगत् को खोजने और पाने की अपेक्षा अन्तरंग जगत् को खोजना और पाना अधिक लाभदायक है । बहिम्खी दृष्टि वाले मानवों ने जितने अपने पुरुषार्थ से बाहर में प्रकृति के विस्तार में से जितना खोजा और पाया है, उतना ही पुरुषार्थ अगर आत्मा के अंतरंग को खोजने पाने में किया होता- जो कि मानव के लिए सहज, सुलभ और अनिवार्य था-तो उससे कई गुना अधिक आत्मानन्द मिलता। बाह्य जगत् के भौतिक पदार्थों को खोजने-पाने तथा उसके कारण संयोग-वियोगजनित दुःखों को पाने का क्रम तो जन्म-जन्मातर से चला आ रहा है, किन्तु अन्तर्जगत् को खोजने-पाने का अवसर तो इसी जन्म में मिला है। फिर यह सुनहरा अवसर छोड़कर बाह्यजगत् के जाल में फंस कर क्यों अपना श्रम, समय, बुद्धि आदि खर्चे जाएं, और क्यों नाना विडम्बनाओं, चिन्ताओं और यातनाओं का बोझ लादा जाय, मनमस्तिष्क पर ? परन्तु वर्तमान युग का मानव इतना अश्रद्धालु, अधीर और नास्तिकसा बना हुआ है कि वह बाह्य जड़जगत् को देखने-पाने के चक्कर में पड़कर उसी में अपनी जिंदगी पूरी कर देता है, उसे अवकाश नहीं मिल पाताआत्मा को ढूंढने, जानने, देखने और पाने का। आत्मा को ज्ञानचक्षुओं से शुद्ध रूप में देखो स्फटिक की प्रतिमा पर धूल पड़ी होने पर भी वह दिखाई देती है, क्योंकि स्फटिक पारदर्शी है, निर्मल है। इसी प्रकार चैतन्यमूर्ति आत्मा स्फटिक-सा निर्मल है, उस पर कर्मों की धूल पड़ी हुई है, फिर भी ज्ञानचक्षुओं से देखने वाले को वह दिखाई देती है। आत्मा अपने आप में ज्ञानमय स्वभाव वाली निर्मल चैतन्यमूर्ति है, वह कर्म तथा शरीर की धूल से पृथक है । इस प्रकार शुद्ध आत्मा का ध्यान करे, उसे अन्तर् में ज्ञाननेत्रों से देखन का प्रयत्न करे तो स्फटिक प्रतिमा के समान शुद्ध आत्मा का अनुभव हो सकता है । स्फटिक की प्रतिमा के चारों ओर धूल पड़ी होने पर भी वह धूल उस प्रतिमा में प्रविष्ट नहीं हो सकती, इसी प्रकार शरीर और कर्मों रूपी धूल ज्ञानमूर्ति आत्मा के चारों आर पड़ी होने पर भी वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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