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________________ ( ७ ) के अतिरिक्त उपनिषद्, शंकर का अद्वैत दर्शन, तथा योग विषयक विविध ग्रंथ-जिनमें हरिभद्र, आनंदघन, यशोविजयजी आदि अध्यात्मवादी आचार्यों का चिन्तन है । मैंने कई बार उनका अध्ययन-अनुशीलन किया। आचार्य हरिभद्र का यह श्लोक बार-बार मेरे मन-मस्तिष्क में घूमता रहता था। 'पारमैश्वर्ययुक्तत्वात् आत्मैव मत ईश्वरः" परम-ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण आत्मा ही परमात्मा है । उपाध्याय यशोविजयजी का यह वचन"सिद्धस्य हि स्वभावो यः सैव साधकयोग्यता" (अध्यात्मसार) सिद्ध आत्मा का जैसा ज्ञान-दर्शन-आनन्दमय स्वभाव है, वही शुद्ध स्वभाव की योग्यता साधक आत्मा में स्थित है। इस प्रकार के अनुभवमूलक प्रेरक सूत्र जहाँ आत्मा की अखण्डअनन्त सत्ता का सम्पूर्ण बोध और विश्वास जगाते हैं, वहीं आत्मा से परमात्मपद तक पहुँचने की, अर्थात् आत्मा को परमात्मा बनने तक की सम्पूर्ण विधि का अध्यात्मवादी तात्त्विक विवेचन विश्लेषण भी इन ग्रंथों में मिलता है, जिनके स्वाध्याय से ज्ञान के नित नये आयाम खुलते हैं और साधना को तेजस्वी, प्रभावी बनाने की अनुभूतियाँ भी मिलती हैं। मैंने उन्हीं अध्यात्म ग्रन्थों के स्वाध्याय के आधार पर कुछ निबंध समय-समय पर तैयार किये हैं। इन निबंधों का मूल विषय एक धाराबद्ध है । आत्मा का स्वरूप, आत्मा का अस्तित्व, आत्मा की खोज, आत्मा-परमात्मा में भेदअभेद, परमात्मा बनने का मार्ग, परमात्म-स्वरूप की उपलब्धि, विविध साधनाएँ आदि। ___ इस प्रकार इस संपूर्ण विषय का एक वैज्ञानिक अध्ययन हो जाता है, जिसमें हम आत्मा से परमात्मा तक की रासायनिक परिवर्तन की प्रक्रिया का आत्मानुभवगत बोध प्राप्त कर सकते हैं । यद्यपि यह अध्यात्म प्रधान विषय गम्भीर है, इसलिए कुछ नीरसता भी आ सकती है। किन्तु वास्तव में यह नीरसता नहीं, विषय की गम्भीरता ही है । जिन्हें अध्यात्म विषय की अभिरुचि है, इस विषय का अध्ययन है, वे इन निबंधों के स्वाध्याय से अवश्य ही आध्यात्मिक खुराक प्राप्त कर प्रसन्नता का अनुभव करेंगे । मैंने प्रयास यही किया है कि सरल व अनुभवगम्य उदाहरणों द्वारा इस गम्भीर विषय को सुबोध तथा रुचिकर बना लू, आशा करता हूँ प्रबुद्ध पाठक अवश्य ही इसको पढ़कर आत्मानंद अनुभव कर सकेंगे। हमारे श्रमणसंघ के परम श्रद्धय नायक महामहिम आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज की प्रेरणा और प्रोत्साहन का ही यह सुफल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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