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( ६ )
जिन आत्माओं ने पुरुषार्थ और प्रज्ञान द्वारा अपने स्वरूप का अनुभव किया, उस अनन्त चिन्मय रूप को जागृत किया, उन्होंने इस अज्ञानावृत आत्मा को उद्बोध देकर कहा - "पुरिसा ! बंध- प्पमोक्खो तुज्झत्थमेव " हे पुरुष ! ( हे आत्मन् ! ) बंधन से मुक्त होने की शक्ति तेरे ही भीतर छुपी है तेरे भीतर अनन्तज्ञान-दर्शन, सुख की सत्ता छिपी है । तू पुरुषार्थ कर । इस स्वरूप को प्राप्त कर । स्वरूप को प्राप्त करने पर यह आत्मा ही परमात्मा बन जायेगा - " अप्पा सो परमप्पा" ।
वास्तव में जैनधर्म का यह अद्भुत उदात्तघोष समूचे अध्यात्मजगत् में अद्वितीय कहा जा सकता है, जिसने आत्मा और परमात्मा को एक ही सत्तत्व माना है । आत्मा, परमात्मा में कोई मौलिक स्वरूप का अन्तर नहीं, सिर्फ स्थिति का अन्तर है । अज्ञान - मोहावृत दशा में आत्मा है, और अज्ञान - मोहमुक्त होने पर वही आत्मा परमात्मा बन जाता है । समूचे अध्यात्म क्ष ेत्र में यह क्रान्तिकारी उद्घोष आत्मा की महानता का, अनन्त शक्तिमत्ता का जयघोष है । यद्यपि कहने में यह बात बहुत सरल है कि आत्मा ही परमात्मा है, और सुनने में भी बड़ी कर्णप्रिय मधुर लगती है । कोई भी आत्मा स्वयं को परमात्म-रूप में सुनकर प्रफुल्ल हो उठता है, किन्तु तात्विक दृष्टि से यह साधना की एक सुदीर्घ कठिन प्रक्रिया है ।
जिस प्रकार सोने की खान में से मिट्टी के कण निकालकर मिट्टी से सोना बनाने की बात सुनने में बहुत ही आसान व मोहक लगती है । किन्तु मिट्टी से सोना बनाने की कठिन रासायनिक प्रक्रिया का जिसे ज्ञान है, वह समझता / मानता है कि यह प्रक्रिया कितनी कठिन और लम्बी है । जब तक इस रासायनिक प्रक्रिया से मिट्टी- कण नहीं गुजरते हैं, सोना नहीं बनता ।
आत्मा को परमात्मा बनने के लिए भी इसी प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है । अध्यात्म की भाषा में "भावना" को "रस" कहते हैं । भावों के परिवर्तन से कर्म दलिकों में रस-परिवर्तन होता है और उस रस-परिवर्तन से ही आत्मा अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध दशा को प्राप्त होती है । यह रासायनिक परिवर्तन ही आत्मा को परमात्म स्वरूप में प्रतिष्ठित करता है ।
काफी समय से मैं अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन कर रहा था । आगमों
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