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________________ ६४ | अप्पा सो परमप्पा आत्मा है कहाँ और खोजते कहाँ हैं ? सच है, आज अधिकांश व्यक्ति आत्मा की खीज में जुटे हैं, परन्तु जब तक मन, वचन और काया को स्थिर करके एकाग्रचित्त से उसमें तन्मय नहीं हो जाएँगे, तब तक केवल बाह्य क्रियाकाण्डों में, अनुष्ठानों में बाह्य तप-जप में खोजने से आत्मा के दर्शन नहीं हो सकेंगे | अमितगति सामायिक पाठ में इसी तथ्य की ओर संकेत है । 1 एक गाँव में एक भट्टारक पूजा-पाठ करवा रहे थे । वहीं एक दूसरे भट्टारक भी आ गए। उन्होंने पूछा- यह क्यों करवा रहे हैं ? इस पर पूजा-पाठ परायण भट्टारक ने कहा - "यह हमारी परम्परा है । आत्मकल्याण के लिए हम यही करवाते आ रहे हैं ।" I दोनों भट्टारक परस्पर वार्तालाप कर रहे थे, इतने में ही आगन्तुक भट्टारक का एक शिष्य दौड़ा-दौड़ा आया और बोला- आज तो हमारे हार का सबसे बड़ा मोती गुम हो गया । आश्चर्य है, हमने उसे जिस कमरे में रखा था, वहाँ नहीं मिल रहा है । भट्टारक गुरु ने तुरन्त अपने पाँचों शिष्यों को बुलाया और उनमें से एक को आदेश दिया--जाओ, उसे नदी तट पर खोजो । दूसरे से कहा- तुम होम करो और मोती को हवन मंत्र से आकर्षित करो । तीसरे को आदेश दिया -जाओ, मोती को पहाड़ की तलहटी में खोजो । चौथे को आदेश दिया - नगर की परिक्रमा करो, मोती आखिर नगर से बाहर कहाँ जाएगा ? पाँचवें शिष्य से कहा- तुम जाकर कुण्ड में खोजो । स्थानीय भट्टारक साश्चर्य बोला- आपका मोती गुम हुआ है कमरे में और आपने शिष्यों को भेजा है उसे ढूंढने के लिए कमरे से बाहर नदीतट, कुण्ड, पहाड़ आदि पर । क्या इस तरह मोती मिल जाएगा ? आगन्तुक भट्टारक ने उत्तर में कहा - अजी ! जहाँ को जैसी परम्परा होती है, तदनुसार ही करना पड़ता है । आत्मा हमारे भीतर विराजमान है, उसको ढूंढने-पाने-देखने के लिए आत्मा से जिनका वास्ता नहीं है, ऐसी कितनी बाह्य क्रियाएँ आप करवा रहे हैं, तब मैं भी इसी प्रकार कर रहा हूँ । दोनों महानुभाव चुप थे, परन्तु दोनों ही आत्म-कल्याण के लिए आत्मा को अन्दर में खोजने - देखने के बजाय बाहर ही देख ढूंढ रहे थे । १ " एकाग्रचित्तः खलु यत्र-तत्र स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ।” Jain Education International - सामायिक पाठ श्लो० २५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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