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________________ आत्मा को कहाँ और कैसे खोजें ? | ६३ आत्मावलोकनकर्ता नहीं माना जा सकता। आत्मसाक्षात्कार की मंजिल तो बहत ही दूर है। कोई व्यक्ति सरोवर या जलाशय में डुबकी लगाये बिना ही तैरने की कला पर अपना शोध प्रबन्ध लिख डाले और डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर ले तो कोई भी उसे तैरने की कला का साक्षात्कारकर्ता नहीं मानेगा। इसी प्रकार आत्मदर्शन के विषय में शोध-प्रबन्ध लिख देने मात्र से ही उसे आत्म-द्रष्टा या आत्म-साक्षात्कारका मानने को कोई तैयार नहीं होगा। ___ आत्मा को बाहर में खोजने का प्रयास निरर्थक प्रायः सामान्य जन आत्मा को बाहर ही देखने और खोजने का प्रयास करते हैं, जबकि उसका केन्द्र भीतर है । ऐसे लोग आत्मा के बाहर ही बाहर यात्रा करते हैं। उन्हें कभी भीतर जाने की सूझती ही नहीं, क्योंकि उन्हें बाहर रंग-बिरंगी दुनिया फैली हुई मिलती है, वही सब उन्हें अच्छा लगता है। उसी को वे सारभूत समझते हैं। भीतर उन्हें इन चर्मचक्षुओं से तो कुछ दिखाई नहीं देता। इसलिए भीतर खोजने में उन्हें नीरसता, ऊब या समय की बर्बादी प्रतीत होती है । ऐसे लोगों को अध्यात्म की भाषा में बहिर्मुखी दृष्टि वाले या बहिरात्मा कहा जाता है। ऐसे लोग बाहर में फैले हुए विस्तृत जगत् को ही सरस एवं मूल्यवान समझते हैं। उसी में आत्मा को ढूढ़ते-खोजते हैं। वास्तव में जिसे ढूँढ़नाखोजना, देखना और पाना है, उस आत्मा का अस्तित्व भीतर ही विद्यमान रहता है । जैसे कस्तूरी का मृग अपनी नाभि में अत्यन्त निकट कस्तूरी होने पर भी उसकी सुगन्ध के लिए दूर-दूर झाड़ियों, पत्तों एवं टहनियों में खोजता है, उसी प्रकार बहिर्मुखी दृष्टि वाले लोग भी अत्यन्त निकटवर्ती आत्मा को बाहर खोजते हैं, पर वहाँ वह है ही नहीं, तो मिलेगी कहाँ से ? बाहर खोजने में निष्फलता ही नहीं, खीज और निराशा ही पल्ले पड़ती है । "परमानन्द पंचविंशतिका" में इस तथ्य को स्पष्ट करते कहा गया है कि 'जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति सूर्य को नहीं देख पाते, उसी प्रकार आत्मा के स्वरूप से अनभिज्ञ लोग अपने देह में स्थित अनन्तचतुष्टयसम्पन्न ब्रह्म (आत्मा) का रूप नहीं देख पाते।'1 १ "अनन्त ब्रह्मणो रूपं, निजदेहेव्यवस्थितम् । ज्ञानहीना न पश्यन्ति, जात्यन्धा इव भास्करम् ।।" -परमानन्द पंचविशतिका श्लोक ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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