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आत्मा का यथार्थ स्वरूप | ५३
वह चेतन है। इस प्रकार भौतिक जड़ पदार्थों से आत्मा की विभिन्नता स्वभाव और शक्ति के अन्तर से स्वतः सिद्ध है। किसी भी भौतिक जड़ पदार्थ में चेतना नहीं होती, जबकि आत्मा, चाहे कितनी ही अविकसित चेतनाशील हो, फिर भी उसमें थोड़ी-बहुत चेतना अवश्य होती है । जड़ चेतन नहीं हो सकता, और चेतन भो जड़ नहीं हो सकता । दोनों के लक्षण में जमीन-आसमान का अन्तर है । जड़ पंचभूतों के सम्मिश्रण से चेतनाशील आत्मा उत्पन्न नहीं हो सकतो। जड़ के संयोग से तो जड़ हो उत्पन्न हो सकता है, चैतन्य आत्मा नहों। कार्य कारण के अनुरूप हो होता है। मिट्टी के अनुरूप ही घड़ा होता है, सूत के अनुरूप घड़ा नहीं हो सकता। चैतन्य आत्मा जड़ के अनुरूप नहीं है। फिर उत्पन्न भी वही पदार्थ होता है, जो पहले न हो । आत्मा तो पहले भी थो, बाद में भी रहेगो, वह तो सदाकाल स्थायी है। किसी भी पदार्थ से उसके उत्पन्न होने का सवाल ही नहीं उठता। शरीर-परिवर्तन के साथ आत्मा परिवर्तित या नष्ट नहीं हो जाती। शरीर तो आयुष्य कर्मानुसार नष्ट हो जाता है, यानी तज्जन्य सम्बन्धी आयुष्यकर्म भोग लेते हो वह शरोर नष्ट हो जाता है, और आत्मा नये आयुष्यकर्मबन्ध के अनुसार दूसरा शरीर धारण कर लेती है। इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि शरीर के नष्ट होने के साथ आत्मा भी नष्ट हो गई । आत्मा आकाश के समान अमूर्त हैं, वह न कभी नष्ट होती है, न ही कभी उत्पन्न होती है, न कभी वह बनती-बिगड़ती है। बनना-बिगड़ना, उत्पन्न-विनष्ट होना, शरीरादि जड़ पदार्थों का काम है, आत्मा का नहीं। वह तो अनादि निधन है, अखण्ड, अच्छेद्य, अभेद्य, अविनाशी और अनन्त है।
आत्मा अमूर्त, अभौतिक एवं अरूपी है स्थूल शरीर तो आँखों से दिखाई देता है, परन्तु सूक्ष्मशरीर, मन, बुद्धि, परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ आँखों से न दिखाई देने पर भी चतुःस्पर्शी पुद्गल हैं। उनमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श होता है । जिनमें वर्णादि हों, वे सभी जड़, भौतिक पुद्गल हैं। ये भौतिक पुद्गल-जड़ प्रकृति के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि उत्तरोत्तर पर हैं, परन्तु ये सब पुद्गल (जड़) हैं, आत्मा इन सबसे पर है, जो चेतन है । वह निश्चय
१ "इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्ध: परतस्तु सः ॥"
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