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________________ आत्मा का अस्तित्व | २३ में उभरता रहा है कि जन्म से पहले और मृत्यु के पश्चात् क्या होता है ? इस प्रश्न का उत्तर दार्शनिकों ने यह दिया कि जन्म से पूर्व भी जीवन है और मृत्यु के पश्चात् भी जीवन है । जब तक जीव सांसारिक अवस्था में रहता है - जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं होता, तब तक जन्म और मृत्यु का यह चक्र प्रत्येक जीव ( आत्मा ) का चलता रहता है । जन्म से पूर्व जीवन ( चेतनायुक्त) इसलिए है कि चेतनयुक्त जीवन ही नये शरीर में प्रविष्ट होता है, जड़ नहीं । जड़ से चेतन पैदा नहीं होता और न ही चेतन से जड़ पैदा होता है । अब रही बात मरने के बाद के जीवन की । वह भी इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि चेतनायुक्त जीवन का मरण नहीं होता, मरण होता है - शरीर का । मृत्यु के बाद शरीर यहीं रह जाता है, केवल चेतना ही दूसरे नये शरीर में प्रविष्ट होती है । इस तरह जब तक आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हो जाती, तब तक चेतना ( आत्मा ) स्थानान्तर होती रहती है । आत्मा की तीन अवस्थाओं से अस्तित्व-सिद्धि जो प्रत्यक्षज्ञानी थे, उन्होंने आत्मा की अपनी अनुभूति और साक्षात्कार के बल पर यह कहा कि जन्म से पूर्व और मरण के पश्चात् दोनों दशाओं में चेतनामय जीवन होता है । इन दोनों अवस्थाओं को वे क्रमशः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म कहते थे । उनका कहना है कि हमारा वर्तमान जीवन, जो हमारे समक्ष है । यह पूर्व और पश्चात् के बीच का मध्यवर्ती जीवन है । जैसे - एक व्यक्ति के एक ही जीवन में बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था होती है, ये तीनों एक ही जीव (आत्मा) के होते हैं, वैसे ही पूर्व, मध्यवर्ती और पश्चातु का जीवन भी एक ही जीव (आत्मा) का है । जिसकी बाल्यावस्था नहीं होती, उसकी युवावस्था और वृद्धावस्था नहीं हो सकती, इसी प्रकार जिस जीव (आत्मा) की पूर्वावस्था नहीं होती, उसकी मध्यावस्था कैसे हो सकती है ? उन्होंने कहा -- ' जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कुओ सिया ?" 'जिसका पूर्व और पश्चात् नहीं है, उसका मध्य कैसे हो सकता है ?" अनुभव और प्रत्यक्षज्ञान के आधार पर उन्होंने समाधान दिया कि यदि मध्यवर्ती अवस्था है तो उसकी पूर्वावस्था भी होगी योर पश्चादवस्था भी होगी। पूर्व और पश्चातु के बिना मध्य अवस्था हो नहीं सकती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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