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________________ ३५४ | अप्पा सो परमप्पा और विशुद्ध होने के लिये मार्गदर्शन देने का प्रभु का निर्मल भवन एवं प्रभु की आन्तरिक दिव्य ध्वनि श्रवण करने का ध्वनि प्रसारण केन्द्र प्राणियों का हदय ही है। यहीं विराजमान परमात्मा (शूद्ध आत्मा) की अव्यक्त दिव्यध्वनि अपने दिव्यकर्गों से मनोयोगपूर्वक दत्तचित्त होकर कोई सूने तो उसके हृदय में ऐसी प्रेरणा, स्फुरणा, संकेत या सन्देश प्राप्त होता रहता है, जिस पर चलकर वह दिव्य श्रोता अपनी आत्मा को परमात्मतत्व तक ले जा सकता है, आत्मा का चरम उत्कर्ष प्राप्त कर सकता है। इसलिये कहना चाहिये कि प्रभु की अनिवर्चनीय अव्यक्त दिव्यध्वनि श्रवण करने का सर्वोत्कृष्ट स्थान या वर्तमान युग की भाषा में कहें तो रेडियो स्टेशन प्राणी का हृदय ही है। यहीं से प्रभु की दिव्य ध्वनि प्रसारित होती है। हृदय के सिंहासन पर समासीन होकर ही वीतराग परमात्मा जिज्ञासु प्राणियों के लिये हित का परामर्श, सुझाव, निर्देश, आदेश, अन्तःस्फुरणा या मार्गदर्शन अव्यक्तरूप से देते रहते हैं। वे समस्त जोवों की भावदयाआत्मरक्षा से प्रेरित होकर सतत् अपना निर्ग्रन्थ-प्रवचन या अध्यात्मविकास के मूलमन्त्र, समस्त जिज्ञासू जोवों के अन्तःकरण में स्फूरित करते रहते हैं। पवित्र हृदयमन्दिर में स्थित होकर वे अपनी अस्पष्ट दिव्यध्वनि से उन तत्त्वों, तथ्यों, सत्यों और सिद्धान्तों का स्मरण कराते रहते हैं, जिन्हें आत्मार्थी साधक समय-समय पर विस्मृत हो जाता है । प्राणि हृदयरूपी प्रभु मन्दिर में भव्य प्राणियों के लिये आत्मजागरण का घण्टा-नाद होता रहता है। ध्यान से सुनने पर इस प्रभुमन्दिर की शंखध्वनि भी मानव जीवन के साथ जुड़े हुए महान् दायित्वों एवं कर्तव्यों को निभाने तथा जागतिक शान्ति, सुव्यवस्था, सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियों में अभिवृद्धि करने का सन्देश एवं परामर्श देती सुनाई देती है। परमात्मीय दिव्यसन्देश सुनने के लिए प्राणियों का अन्तःकरण एक प्रकार का टेलीफोन (दूरभाष) केन्द्र है, वहाँ से वीतराग परमात्मा की दिव्यध्वनि सुनी जा सकती है । अपने हृदय में स्थित परमात्मीय टेलीफोन से प्रभु की (शद्ध आत्मा की) आवाज तभी स्पष्ट सूनाई देगी, जब जिज्ञासु प्राणी अथवा मानव उसका रिसीवर (चोंगा) उठाकर कान के निकट लगायेगा। टेलीफोन का चोंगा (रिसीवर) उठाकर कान के पास लगाने से ही दूर से बोलने वाले व्यक्ति की आवाज स्पष्ट सुनाई देती है। परमात्मीय दूरभाषक (टेलीफोन) का रिसीवर (चोंगा) है-स्वभाव-सन्देशवाहक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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