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हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३५३
अपने बच्चों को वह क्यों नहीं मार डालता ? यही कारण है कि सिंह जैसे हिंस्र प्राणी का हृदय भी वत्सलता, करुणा और कोमलता से युक्त है । अतः क्रूर प्राणी का बाह्य व्यक्तित्व कठोर प्रतीत होने पर भी उसका हृदय कोमल होता है। चम्बल घाटी के खूख्वार डाकूओं को भी इसलिए बदला जा सका कि उनके हृदय में कोमलता, वत्सलता एवं प्रेम का निवास था। इसी कारण शान्ति, प्रेम और वात्सल्य की भाषा को उनका हृदय ग्रहण कर सका था।
परमात्मा के विराजने का सर्वाधिक उपयुक्त स्थान : प्राणिहृदय यही कारण है कि परमात्मा का आसन प्रत्येक प्राणी के, विशेषतः मनुष्य के हृदय-सिंहासन पर है। अर्थात् प्रत्येक प्राणी के हृदय में परमात्मा का निवास है । हृदय में परमात्मा का स्थान इसीलिए उपयुक्त माना जाता है कि प्राणियों का हृदय ही अपने आपमें सबसे कोमल, सरल, निश्छल और पवित्र एवं शुद्ध चेतना का केन्द्र होता है। यह बात दूसरी है कि चेतना के विकास की न्यूनाधिकता के कारण किसी प्राणी का हृदय किसी कारणवश कदाचित् कठोर हो जाए तो भी वह अमुक परिस्थिति, संयोग और कारणों से परिवर्तित भी हो सकता है । वह कठोर से कोमल, क्रूर से दया, कृपण से उदार, कुटिल से सरल, क्रोधी से क्षमाशील, अहंकारी से नम्र, स्वार्थी से निःस्वार्थी, प्रतिकूल से अनुकूल, कामनाप्रवण से निष्काम, मदग्रस्त से निर्मद, मोहग्रस्त से निर्मोही तथा अशुद्ध और अपवित्र से शुद्ध
और पवित्र बन सकता है । इसी अपेक्षा से परम विशुद्ध वीतराग परमात्मा (शुद्ध आत्मा) का निवास हृदय में ही सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। भगवद्गीता में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है
'ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति ।1 हे अर्जुन ! ईश्वर (परमात्मा) समस्त प्राणियों के हृदय-प्रदेश में स्थित रहता है।
वस्तुतः परमात्मा (शुद्ध आत्मा) का सबसे निकटवर्ती स्थान, उनके बैठने का सबसे उपयुक्त सिंहासन, उनके रहने का पवित्र मन्दिर तथा विराजमान होकर उनके द्वारा प्राणियों को मूक अन्तःप्रेरणा देने तथा उन्हें जागृत करने का प्रेरणा-सदन, द्रव्य और भाव से प्राणियों को निर्विकार
१ भगवद्गीता अ. १८; श्लो. ६१
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