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३४८ | अप्पा सो परमप्पा
अहंतु-परमात्मा का स्पष्ट बोध, स्मरण एवं अवतरण हो जाएगा, तभी परिपक्वरूप से अर्हत्परमात्मा से उसकी आत्मा भावित हो गई, ऐसा समझा जाएगा। जिस व्यक्ति की अन्तरात्मा में इस प्रकार जीवन्मुक्त वीतराग अर्हत्परमात्मा प्रतिष्ठित हो गए उसे अपने में अर्हत्परमात्मा का अनुभव होने लगता है, फिर उसमें परभावों का किचित् भी मोह टिक नहीं सकता। उस शुद्ध आत्मा को सिद्धपरमात्मा होने देर नहीं लगती।
इसी प्रकार ज्यों ही 'नमो सिद्धाणं' की ध्वनि कर्णकुहरों में पड़े , त्यों ही आत्मार्थी साधक की चेतना में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा द्रव्य, गुण और पर्याय झंकृत हो जाना चाहिए। सिद्ध-परमात्मा के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और असीम आत्मिक शक्ति की लहरें अन्तरात्मा में स्फुरित हो जानी चाहिए । साथ ही ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आत्मिक सूख की पर्यायों का भी तब मन के कण-कण में अनुभव होना चाहिए । 'परमा नन्द पंचविंशति' के शब्दों में
"अनन्तसुख-सम्पन्न, ज्ञानामृत-पयोधरम् । अनन्तवीर्यसम्पन्न दर्शनं परमात्मनः ॥ निविकारं निराधारं सर्व-संग-विवजितम् ।
परमानन्द-सम्पन्न, शुद्ध चैतन्य-लक्षणम् ॥" परमात्मा शुद्ध आत्मा (चैतन्य) रूप है, अनन्तसुख सम्पन्न है, ज्ञानामृत के मेघ से युक्त, अनन्तवीर्य (आत्मशक्ति) सम्पन्न एवं अनन्तदर्शनमय है । फिर वह परमानन्द से सम्पन्न प्रभु निर्विकार, आधाररहित, सर्व-संग से दूर है ।' ऐसे परमात्मा का दर्शन शुद्ध आत्मा में करना ही भावितात्मा का लक्षण है। कुक्कुटभाव से भावित चित्रकार
एक राजा को चित्रकला का बड़ा शौक था। उसने अपने राज्य के नामी चित्रकारों को आमंत्रित करके कहा- "मुझे अपने राज्य की मुद्रा के लिए बोलते हुए मुर्गे का चित्र बनवाना है । जिसका चित्र उत्तम होगा, उसे पुरस्कार दिया जाएगा।" सभी चित्रकार चले गए। कुछ दिनों बाद वे अपना-अपना चित्र बनाकर लाए। राजा ने उनके बनाये हुए चित्रों को देखा तो वे बहुत पसन्द आए । राजा ने विचार किया कि मैं चित्रकला का पारखी तो हूँ नहीं । कौन-सा चित्र सर्वश्रेष्ठ है, इसका निर्णय मैं कैसे दू?
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