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३४६ | अप्पा सो परमप्पा आत्मा को परमात्मभाव से भावित करने के लिए श्रेष्ठ साधना
अपनी आत्मा को परमात्म-भाव से भावित करने के लिए आचारांगसूत्र में महत्त्वपूर्ण साधनासूत्र बताया है___"तद्दिवीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे।
तस्सण्णी तन्निसेवणे अभिभूय अदक्खू ।"1 भावार्थ यह है कि 'परमात्मभाव से भावित होने के लिए साधक की आत्मा परमात्मा की ओर ही दृष्टि रखे, सावद्य (पर) भावों से उनकी मुक्ति की वृत्ति से चले, उन्हें आगे (केन्द्र में) रखकर चले, परमात्मा की जो संज्ञा (नाम) है, वही अपने लिए माने, उनकी सेवा में अपने मन,बुद्धि आदि को संलग्न कर दे । ऐसा साधक आत्मबाह्य दुर्गुणों (विभावों) को पराभूत (जीत) कर अनन्य द्रष्टा (आत्मदर्शी) बनता है।'
यह साधना ऐसी ही है, जैसे पनिहारो अपनी सखी-सहेलियों से कितनी ही बातें करती रहती हैं, परन्तु सिर पर रखा हुआ पानी का घड़ा नहीं भूलती । चकवा उधर ही टकटकी लगाए रहता है जिधर चन्द्रमा का मुख हो, पतिव्रता स्त्री अपने पति को सदैव स्मरण करती रहती है ।
आशय यह है कि जैसे ही साधक अरहन्त परमात्मा का नाम उच्चारण करे, वैसे ही उसकी अन्तर्दृष्टि सब ओर से सिमट कर एकमात्र अरहन्त में निविष्ट हो जाए, 'अप्पाणं वोसिरामि' करके जिनेन्द्र परमात्मा की तरह समस्त परभावों और विभावों से या सर्वसावध योगों से अपने-आपको मुक्त कर ले, वीतराग परमात्मा को ही अपनी बुद्धि में केन्द्रित कर ले, उनकी ही सेवा में अपनी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, प्राण आदि को संलग्न करदे, परमात्मा की जो संज्ञा (गुणवाचक नाम) है, वही संज्ञा अपनी माने, इस प्रकार साधक का तन, मन, नयन, वचन, प्राण, इन्द्रियाँ, तथा हृदय संकल्पशक्ति से इतने सुदृढ़ और विकसित हो जाएं कि जगत की कोई भी बाह्य शक्ति, भीति एवं प्रलोभन उसे अरिहन्त परमात्मा से एक इंच भी विचलित एवं पृथक् न कर सके। साधक सतत् अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप का-अरहन्त प्रभुमय स्वरूप का-अनुभव करती रहे। तभी उसकी आत्मा अर्हत्मय-परमात्ममय बन सकेगी। उसका अन्तरात्मा (मन, बुद्धि, हृदय आदि अन्तःकरण) इतना सुदृढ़ और प्रतिरोधात्मक शक्ति से युक्त बन जाए कि उसमें परभावों और विभावों-दुर्भावों के परमाणु जरा
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आचारांग श्रु. १, अ. ५, उ. ६, सू. ५७६
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