SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मभाव से भावित आत्मा : परमात्मा | ३४५ मय्यावेश्य मनो ये मां, नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥1 मेरे (परमात्मभाव) में अपने मन को प्रविष्ट स्थिर करके मेरे ही स्वरूप के ध्यान में सतत् संलग्न जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी (सद्गुण परमात्मा की) उपासना करते हैं । वे मेरे मत से योगियों में उत्तम योगी हैं। उपनिषद् में एक सूक्त हैं-'देवो भूत्वा देवं यजेत्'-जो वीतराग परमात्मदेव बनना चाहता है, वह तदनुरूप देव (परमात्मरूप) बनकर ही परमात्म देव की यथार्थ उपासना-पूजा करे। परमात्मा की ओर मह करो, परमात्मा को पकड़ सकोगे आत्मा में परमात्मा का प्रकाश तो मौजूद है, किन्तु थोड़ी-सी भूल हो रही है । भूल यही हो रही है कि परमात्मा की ओर मुंह करना चाहिए उसके बदले विपरीत दिशा में मुह कर रखा है। सूर्य पूर्व में उदित हुआ है, और एक व्यक्ति पश्चिम की ओर मुंह करके खड़ा है। उसकी परछाई पश्चिम में पड़ रही है। वह व्यक्ति अपनी परछाई को देखकर उसे पकड़ने दौड़ता है। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों परछांई भी आगे बढ़ती जाती है। परछांई उसके हाथ नहीं आती। किसी ज्ञानी पुरुष ने उसकी मनोव्यथा देखकर कहा-भाई ! तू उलटी दिशा में दौड़ लगा रहा है। अपनी छाया को पकड़ने का यह उपाय नहीं है। यदि तू पूर्व की ओर मुह करके आगे बढ़ता तो तेरी छाया भी तेरे पीछे-पीछे भागती आती। तू अपना मुंह बदल लेगा तो फिर तुझे छाया के पीछे भागने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भागने वाले ने अपना मुंह फिराया और पूर्व की ओर भागने से उसकी छाया भी उसके पीछे-पीछे भागने लगी। पहले वह परछाई के पीछे दौड़कर परेशान हो रहा था, तब वह हाथ नहीं आती थी, अब तो छाया ही उसके पीछे दौड़ने लगी। यही स्थिति आत्मा की है। यदि आत्मा परमात्मा की ओर दृष्टि रखकर न चले और उसे पकड़ना चाहे तो वह दूर ही रहेगा, पकड़ में नहीं आएगा, अपितु आत्मा यदि परमात्मा की ओर मुख करके लक्ष्य की दिशा में दौड़ेगा तो अवश्य ही परमात्मतत्व पकड़ में आ जाएगा। क्योंकि ज्ञानी पुरुष कहते हैं-'तुम्हारा परमात्मा तुम से दूर नहीं है।' १ भगवद्गीता अ. १२, श्लो. २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy