SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३६ | अप्पा सो परमप्पा कहा - 'मुझे कुछ बताइए।' साधु ने उसके क्रूर भावों को सौम्य भावों में परिवर्तन करने के उद्देश्य से उसे कहा – 'उपशम, संवर, विवेक ।' बस, इन तीन शब्दों ने चिलातीपुत्र के मन-मस्तिष्क और अन्तरात्मा में उथलपुथल मचा दी । उसने अपने क्रूरभावों का सर्वथा परित्याग कर दिया । तलवार एक ओर फेंक दी । मृतकन्या का मस्तक तो वह पहले ही फंक चुका था । अब वह सहसा अपनी अन्तरात्मा को उपशम, संवर और विवेक से भावित करने लगा । वह शुद्ध आत्मभावों से भावित होकर कुछ ही देर में उपशांत, संवृत्त एवं समाधिस्थ हो गया । उस भावितात्मा के आत्मघातक कर्म - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय सहसा नष्ट हो गये और वह केवलज्ञान - केवलदर्शन (अनन्तज्ञानदर्शन) अनन्त आत्मिक आनन्द एवं असीम आत्मशक्ति से सम्पन्न -- सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन गया । अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति जिस प्रकार के भावों से स्वयं को भावित करता है, वह वैसा ही हो जाता है । चोर, डाकू, हत्यारे, वेश्या, धीवर, कसाई आदि भी जब अपनी आत्मा को परमात्मभावों से भावित कर लेते हैं तो वे भी शीघ्र ही परमात्मा बन जाते हैं । ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण संसार के इतिहास में मिलते हैं । बौद्ध ग्रन्थों में आम्रपाली वेश्या का उल्लेख आता है । वह अति नीच कृत्य करने वाली गणिका थी। उन्हीं नीचभावों से वह भावित रहती थी । किन्तु तथागत बुद्ध के उपदेशों से एक दिन उसने बोद्धसंघ को अपनी सर्वस्व सम्पत्ति सौंपकर बौद्धभिक्ष ुणी का जीवन अंगीकार कर. लिया । वह उच्च भावों से भावित रहने लगा । इसी प्रकार रोहिणेय चोर, अंगुलिमाल हत्यारा, दृढ़प्रहारी, अर्जुन माली आदि अनेकों उदाहरण आत्मा को उच्च भावों से भावित होने के माहात्म्य को एक स्वर से सिद्ध करते हैं । इसी प्रकार शालिभद्र जैसे श्र ेष्ठिपुत्र, जो एक दिन पंचेन्द्रिय-विषय सुखों में निमग्न थे। जिन्होंने कभी दुःख की छाया तक नहीं देखी थी, जिनके यहाँ वैभव का अम्बार लगा हुआ था, किन्तु राजा श्रेणिक का आगमन जब उसके आवास भवन में हुआ । और माता भद्रा के मुख जब उसने यह सुना कि 'पुत्र ! ये (मगध सम्राट श्र ेणिक) हमारे सिरछत्र हैं । इनका सारे मगधदेश पर आधिपत्य है ।' तभी अतिसुकोमल शालिभद्र की अन्तरात्मा ने नई अंगड़ाई ली । उसकी अन्तरात्मा इन भावों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy