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________________ आत्मा का अस्तित्व | १६ पृथक्-पृथक् रूप से किये थे । आत्मा को खोजने और देखने के लिए भी उसने कई प्रयोग किये थे। एक चोर को मृत्युदण्ड की सजा दी गई थी । उसे मारना तो था ही। प्रदेशी राजा ने सोचा - इसे ऐसे ही क्यों मारूँ ? प्रयोग करके देखूं कि इसमें आत्मा है या नहीं है ? उसने उक्त अपराधी को तीनों ओर से बन्द एक लोहे की सघन कोठी में डलवा दिया और ऊपर से ढक्कन इस प्रकार से लगवा दिया कि उसमें हवा प्रवेश करने का जरा-सा छिद्र न रहे। फिर राजा ने सोचा कि अगर आत्मा नामक कोई चीज होगी तो पता लग जायेगा कि वह कोठी के किस भाग से निकली। थोड़ी देर बाद कोठी का ढक्कन खोलकर देखा तो वह चोर मर चुका था । परन्तु राजा ने मन ही मन कहा- अगर आत्मा होती तो निकलते समय इस कोठी में कहीं न कहीं दरार जरूर पड़ती, यह फट जाती । किन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ । इससे मालूम होता है कि आत्मा नहीं है । फिर एक दिन उसने मृत्युदण्ड प्राप्त एक अपराधी के शरीर को फाँसी देने से पहले तोला और फाँसी देने के बाद फिर उसका वजन किया । दोनों अवस्थाओं में उसका वजन समान हुआ । अगर आत्मा होती तो इस अपराधी के मरने के बाद इसके शरीर से निकल जाने पर शरीर का वजन घटना चाहिए था, किन्तु घटा नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा नहीं है । एक बार उसने एक मृत्युदण्ड प्राप्त गुनाहगार के शरीर के अनेक टुकड़े किये। फिर प्रत्येक टुकड़े में उसने आत्मा को देखने का प्रयत्न किया । जब किसी भी टुकड़े में से आत्मा निकलकर जाती हुई दिखाई नहीं दो, न कहीं आत्मा का पता चला तब राजा को प्रतीति हो गई कि आत्मा है ही नहीं । इस तरह के अनेक प्रयोग प्रदेशी राजा ने देखने का प्रयत्न किया, मगर उन सभी प्रयोगों से दिया कि आत्मा नामक कोई भी पदार्थ शरीर में नहीं है और न हो था । किये और आत्मा को राजा ने यह सिद्ध कर उसका यह विश्वास दृढ़तर होता गया कि आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है । आत्मा को न मानने के कारण वह पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानने से भी इन्कार करता था । कहता था- -अगर पुनर्जन्म या स्वर्गनरक आदि होते तो मेरी धर्मपरायणा दादी स्वर्गलोक से आकर मुझे अवश्य ही दर्शन देती और कुछ न कुछ कहती । परन्तु ऐसा भी न हुआ । इसलिए आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म आदि कुछ नहीं है । इसी कारण राजा प्रदेशी अनेक पापकर्मों में प्रवृत्त रहता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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