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आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३१३ 'उवगरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो न साहए कज्ज ।।
"साधनों (उपकरणों) से विहीन व्यक्ति अभीष्ट कार्य को सिद्ध नहीं कर पाता।"
लोकोत्तर तथा लौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए योग्य आलम्बन
उदाहरणार्थ--मूल में आत्मा अनन्त ज्ञानमय है, वही परमात्मा का गुण है । आत्मा का अपना ज्ञान गुण पूर्णरूप से विकसित हो तो वह परमात्मा के समान अनन्तज्ञानवान् बन सकता है। परन्तु जब तक उसके ज्ञानगुण पर आवरण पड़ा हुआ है, तब तक वह आत्मा से सीधा परमात्मा के उस अनन्त असीम ज्ञान को प्राप्त नहीं कर पाता। अतः उस असीम परमात्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए उस अल्पज्ञ आत्मार्थी को व्यवहार में देव, गुरु, धर्म और शास्त्र का आलम्बन लेना होता है। निश्चय दृष्टि से तो आत्मा ही अपना देव है, आत्मा ही अपना गुरु है, ज्ञानादि में उपयुक्त आत्मा ही अपना धर्म है । और भाव शास्त्र भी आत्मा का ही अपना गुण है जो कि उसके अन्तर् में निहित है।
शास्त्र भी व्यवहार में ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक साधन (अवलम्बन) है, अल्पज्ञ साधक के लिए। उसमें लिखे हए अक्षर शिक्षित और अशिक्षित सभी को नजर आते हैं । किन्तु शास्त्र में लिखित उन अक्षरों या बातों को पढ़ने या सुनने और उनका सम्यक् अर्थ जानने-समझने के लिए अक्षरज्ञान, भाषाज्ञान अध्ययन की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार शास्त्र में अंकित शब्दों और उनके अर्थों एवं रहस्यों का बोध करने के लिए वाचनाचार्य या गुरु का सहारा लेना पड़ता है। शास्त्रीयज्ञान के लिए ही क्यों, संसार के सामान्य पदार्थों का यानो आत्मा और आत्मगुणों के अतिरिक्त आत्मबाह्य पदार्थों का पूर्ण ज्ञान भी सीधा आत्मा से अल्पज्ञ साधक को नहीं हो पाता, उसके लिए भी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा शरीर के अंगोपांगों का सहारा लेना पड़ता है । यद्यपि देखना, सुनना, सूंघना, चखना, स्पर्श करना आदि इन्द्रिय-विषयों का ज्ञान होता तो आत्मा की शक्ति से ही है, किन्तु यह सब ज्ञान किया जाता है, इन्द्रियों और मन की सहायता (आलम्बन) से । देखने के लिए आँखों का, सूंघने के
१ व्यवहार भाष्य १०/५४० २ 'आदा धम्मो मुणेदव्वो।'-प्रवचनसार १/८
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