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________________ परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | २६५ 1 संकट, विपत्ति, रोग या आकस्मिक प्राकृतिक प्रकोप आदि होने पर स्वयं को एकाकी, असहाय और अनाथ न समझे, स्वयं समभावपूर्वक उन्हें सहन कर ले | प्रभु का शरण - सान्निध्य शरणागत के लिए इतना शक्तिदायक, समत्वप्रेरक बन जाता है कि वह पूर्वकृत कठोर कर्मों को भी हंसते-हंसते भोग कर काट लेता है । वह ऐसे विषम स्थानों में भी निर्भय और बेधड़क होकर चला जाता है, जहाँ अधिकांश लोग विरोधी, द्व ेषी या प्रतिकूल हों, उसका जाना-माना कोई सहायक, भक्त, अनुयायो या परिचारक या पारि वारिकजन नहीं होता, अथवा उन स्थानों के खानपान, रहनसहन, जलवायु भाषा, सभ्यता या संस्कार उसके अनुकूल नहीं होते। इसके पीछे शरणागत का दृढविश्वास होता है कि मेरे साथ अव्यक्त रूप से अनन्तशक्तिमान परमात्मा हैं । चिकागो की विश्व धर्म परिषद् में भाग लेने के लिए जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका आए थे, तब उनका परिचित कोई सहायक नहीं था, बल्कि वहाँ के क्रिश्चियन पादरी उनके विरोधी बनकर उन्हें बदनाम करने लगे थे, फिर भी वे उस विरोधी वातावरण में वहाँ डटे रहे, क्योंकि वे अपने साथ परम कृपालु परमात्मा एवं अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस का सान्निध्य मानते थे । इसी कारण उन्हें वहाँ काफी सफलता, आत्मशक्ति एवं कीर्ति प्राप्त हुई। यह है शरणागत द्वारा परमात्मशरण ग्रहण करके विपरीत वातावरण में भी स्व-पुरुषार्थ द्वारा अर्जित सफलता का महालाभ ! अतः परमात्मशरण स्वावलम्बी बनकर पुरुषार्थ करने के लिए है, परावलम्बी बनकर बैठे रहने के लिए नहीं । शरण ग्रहण आप्त वीतराग परमात्मा का ही क्यों ? आज संसार में कलियुगी भगवानों की बाढ़ आ गई है, जो भी थोड़ाकरता है, अथवा कठोर सा चमत्कार बतला देता है, या छटादार भाषण कष्ट सहन करता है, या जादूगर की तरह कुछ भोले लोग भगवान् मान बैठते हैं । कई तथाकथित का संग करते हैं, कामोत्तेजना के कारणभूत दृश्य, श्रव्य, स्पृश्य, खाद्य और गन्ध्य विषयों का खुलकर उपयोग करते हैं । इन्द्रियों और मन को अपनेअपने विषयों में रमण करने के लिये जो उन्मुक्त छोड़ देते हैं, और पंचेन्द्रियों की विषयासक्ति से समाधि लाभ का प्रचार करते हैं, जिन्हें आडम्बर प्रदर्शन, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और प्रशंसा को भूख है, अथवा जो अपनो Jain Education International करिश्मे बताता है, उसे भगवान् अहर्निश स्त्रियों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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