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________________ २६० | अप्पा सो परमप्पा विपत्तियाँ आएँगी, संकट या विघ्न आयेंगे तो वही दूर कर देगा। हमें कुछ करने-धरने की आवश्यकता नहीं। परन्तु यह तो महान आलसियों का सूत्र है। यह परमात्मशरण-स्वीकार करने का यथार्थ उद्देश्य नहीं है । श्रमणसंस्कृति में परमात्मा की शरण परावलम्बी बनने के लिए नहीं, अपितु स्वयं द्वारा रत्नत्रय-साधना में श्रम (पुरुषार्थ) से ही परमात्मपद या मोक्ष पद प्राप्त करने के लिए है। शरण स्वीकार करके साधक शरण्य-परमात्मा पर अपने द्वारा करने योग्य कार्य का भार नहीं डालता। न ही श्रमण संस्कृति किसो देवी-देव या देवाधिदेव से ऐसी याचना या भीख मांगना ही सिखाती है। वह अदीन मन से अपने पुरुषार्थ आध्यात्मिक श्रम से अपनी आत्मशक्ति एवं आत्मज्योति प्रकट करना सिखाती है। परमात्मा की शरण लेने का उद्देश्य यही है कि अनन्तज्ञानादि चतुष्टय सम्पन्न परमात्मा से अपने में सम्यग्ज्ञान, दशन, आत्मिक सुख और आत्मशक्ति प्रकट करने की प्रेरणा, बोध या जागृति मिले । दूसरी दृष्टि से देखें तो परमात्मशरण एक तरह से शुद्ध आत्मा का ही शरण है। जैसा कि मोक्षपाहुड में कहा है आदा हु मे शरण निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा ही मेरा शरण है । प्रभु-शरण-ग्रहण का मुख्य उद्देश्य ____ शरणस्वीकर्ता साधक की आत्मा अभी ज्ञानादि-चतुष्टय में अपूर्ण है, कर्मों से मलिन है, आत्मिकशक्ति में बहुत दुर्बल है। जब तक आत्मघाती कर्म आत्मा से हटते नहीं, तब तक उसके आत्मभावों एवं आत्मगुणों में रमण में, आत्मविकास एवं आत्मशुद्धि करने में बार-बार अनेक अड़चनें आती हैं। अनेक दुःख, संकट और विघ्न आते हैं । प्रभुशरण का उद्देश्य है-उस समय प्रभु से बोधमय प्रकाश, अन्तःस्फुरणा, साहस एवं धैर्य की प्रेरणा मिले, प्रभु का शरण-सान्निध्य उन समस्त दुःखों के बीजरूप कर्मों को काटने में शक्ति, अनुभूति, हिम्मत और आश्वासन देने वाले वाला बने । साथ ही जब कभी साधक साधना करते समय कर्तव्य-अकर्तव्य, हिताहित, श्रेय-प्रेय, हेय-उपादेय के विषय में अल्पज्ञता के कारण किंकर्तव्यविमुढ हो जाए, वहाँ परमात्मा की अव्यक्त यथार्थ प्रेरणा मिले तथा साधक कार्य सिद्धि होने पर अहंकर्तृत्व से बचे, वह सभी श्रेयस्कर कार्यों का श्रेय उन्हीं को दे । दुःख, १ मोक्षपाहुड १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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