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________________ २८६ | अप्पा सो परमप्पा थोड़ी देर बाद एक दूसरा यात्री आया। उसने नदी के किनारे आकर देखा कि नाव तो किनारे लगी है, नदी पार करने के लिए किन्तु वह टूटी-फूटी है । उसका डांड कमजोर है। पाल भी फटा हुआ है। वह स्वयं भी नौका चलाना नहीं जानता। फिर भी वह घबराया नहीं। धैर्यपूर्वक वहाँ खड़ा रहा । इतने में एक कुशल नाविक आया। उसने नाविक से कहा-'मुझे नदी के उस पार सही सलामत पहुँचा दो।' नाविक ने स्वीकार किया और उसने यात्री को हिदायत दी-देखो, नदी में ऊँची-ऊँची लहरें उठ सकती हैं, तूफान आ सकता है और नौका ऊपर उछल भी सकती है, परन्तु तुम बिल्कुल न घबराना। मैं सब कुछ सम्भाल लँगा। नाविक अपने पर आश्वस्त एवं विश्वस्त यात्री को लेकर चल पड़ा। मझधार में लहरें नौका से टकरायीं । तूफान आ गया । तूफानी हवाएँ नौका को उछालने और चट्टानों से टकराने के लिए उद्यत हो रही थीं, किन्तु यात्री नौकाचालन-निपूणता और शरणागत रक्षा के प्रति नाविक की वचनबद्धता पर आश्वस्त और विश्वस्त था। इसलिए घबराया नहीं। कुशल नाविक ने प्रत्येक संकट को सम्भाला और नौका को लहरों और तुफानी हवाओं से बचाते हए यात्री को नदी के उस पार सकुशल पहुंचा दिया। संसारी मनुष्य भी एक जीवन यात्री है । संसाररूपी महासमुद्र उसे पार करना है, किन्तु पहले यात्री के समान जो अहंकारी, उद्धत, अविश्वासी और अज्ञान तथा मोह से ग्रस्त हो, वह अपनी जीवन नैया को कुशल नाविक को लिए बिना ही स्वयं हांक देता है। उसकी दशा भी वैसी ही होती है। वह संसार-समुद्र के उस पारपरमात्मभाव या मोक्ष रूपी लक्ष्य तक पहुँचना तो दूर रहा, मझधार में ही अहंता-ममता, राग-द्वेष, काम, मद, मोह तथा क्रोधादि कषायों के तुफान आने पर या आधि, व्याधि, उपाधि, तथा चिन्ता, विपत्ति, अर्थाभाव, बौद्धिक अक्षमता, अश्रद्धापूर्ण हृदय आदि संकटों की उत्ताल लहरें आने पर एकदम निरुत्साह, निरुद्यम, साहसहीन एवं व्याकुल हो जाता है। फलतः वह इन कठिनाइयों से स्वयं जूझ नहीं सकता और न ही किसी अन्तिम लक्ष्य प्राप्त वीतरागप्रभु पर विश्वास करके उसकी शरण ग्रहण करके अपनी जीवननौका सौंपता है एवं आश्वस्त, विश्वस्त व निर्भय होता है। फलतः उसको जीवननौका नानादुःखों के जल से परिपूर्ण संसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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