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परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | २८५
''आलम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।"1 संसाररूपी समुद्र में मोहादि के कारण डूबते-गिरते हुए मनुष्यों के लिए वीतराग परमात्मा के चरण ही शरणरूप-आलम्बन रूप हैं।
आत्मयात्री को परमात्मरूपी नाविक की शरण से लाभ वस्तुतः परमात्मा के चरण नौका हैं तो परमात्मा स्वयं नाविक हैं, अगर आत्मार्थी मुमुक्ष अपनी जीवनयात्रा को अन्तिम मंजिल-मोक्ष या परमात्मभाव की प्राप्ति तक पहुँचना चाहता है तो उसे परमात्मारूपी नाविक के नेतृत्व और परमात्म-चरणरूपी नौका के आलम्बन या सम्बल पर दृढ़ विश्वास, अविचल श्रद्धा एवं पूर्ण निश्चय रखकर उनकी शरण स्वीकार करना अनिवार्य है। वीतराग परमात्मा की शरण शुद्ध अन्तःकरण से आत्मा द्वारा स्वीकार करने पर निश्चिन्तता और निर्भयता से वह परमात्मभाव की मंजिल तक पहुँचा देती है। उसकी जीवन-यात्रा को सुखद एवं सरल बना देती है।
गुरु नानकदेव ने चैतन्य यात्रो के लिए परमात्मारूपी नाविक की शरण स्वीकार न करने वाले तथा स्वीकार करने वाले का जीवन-चित्र एक रूपक द्वारा समझाया है ।
एक यात्री था। वह सुदूर विदेश यात्रा के लिए निकला था। अभी वह चार कोस चला था, तभी एक विशाल नदी आ गई। उसने देखा कि एक नौका लंगर से बंधी हुई नदी तट पर खड़ी है। वह नौका चलाने में जरा भी कुशल नहीं था। वह अहंकार के साथ गरज उठा-यह नदी मेरा क्या कर लेगी ? मेरे पास नौका जो होगी, वह मुझे उस पार पहँचा ही देगी। वह अहंकारवश नाव को लंगर से खोलकर उस पर सवार हो गया तूफान से बचने के लिए नौका पर पाल उसने बांधा नहीं। डांड खोलकर उसने चलाए नहीं। नौकाचालन निपुण मल्लाह को उसने बुलाया नहीं। उसे बहुत जल्दी थी, जल्दी-जल्दी में नौका खोल दी थी। बादल गरज रहे थे, पानी की लहरें ऊँची उठ रहीं थीं। फिर भी उसने परवाह न की। नतीजा यह हुआ कि नौका हवा के जोर से चल पड़ी। किनारा पार करते ही नौका ज्योंही मझधार में आई, उसे उत्ताल तरंगों ने घेर लिया, नाव के ऊपर उछाल दिया और वह नौका उक्त मूढयात्री-सहित जल में डूब गई।
१ भक्तामर स्तोत्र प्रथम काव्य
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