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________________ अप्पा सो परमप्पा | १५ भी गीतों में वैभव की पूर्णता के भाव प्रगट करते हैं, इसी प्रकार सामान्य मानवात्मा भी वर्तमान में (व्यवहार में) भले ही वह अपूर्ण एवं शक्तिहीन दिखाई दे, किन्तु उसे आत्मिक परिपूर्णता के भाव ही प्रकट करने चाहिए। वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने सामान्य मानवात्मा से जो हो सकता है, और जो उसका असली स्वभाव है, वही बताया है। कोई भी भाग्यशाली एवं हितैषी धनाढ्य पिता अपने पुत्र से कहता है कि तू इतनी थोड़ी-सी अर्थराशि लेकर जवाहरात का व्यवसाय कर, तो वह 'हाँ' ही कहेगा। यह नहीं कहेगा कि इतनी थोडी-सी पूजी से क्या होगा ? जवाहरात का व्यवसाय कम पूजी में कैसे होगा? क्योंकि वह जानता है कि जैसे मेरे पिता के पास पहले बहुत ही कम पूँजी थी, उससे उन्होंने जवाहरात का व्यवसाय प्रारम्भ किया था, किन्तु धीरे-धीरे व्यवसाय में लाभ होने से पंजी बढ़ती गई और व्यापार बढ़ता गया। इसी तरह मैं भी पिता की तरह इस व्यवसाय को कम पूजी से प्रारम्भ करके आगे चलकर पूजी और व्यवसाय बढ़ा सकता है। इसी प्रकार ज्ञानादि चतुष्टय की पूर्णता पर पहुँचे हए सिद्ध परमात्मा जितनी ज्ञानादि-समृद्धि आज भले ही मेरे पास न हो, किन्तु शनैः-शनैः सम्यग्दर्शनपूर्वक ज्ञानादि की समृद्धि बढ़ते रहने से मैं भी एक दिन ज्ञानादि की पूर्णता उपलब्ध कर सकता हूँ। वीतराग सर्वज्ञ प्रभ कहते हैं-'तुम्हारे पास भी मेरे जितनी अनन्त ज्ञानादि की पूजी पड़ी है।' उनके इस कथन पर विश्वास रखकर जो मानवात्मा उस दिशा में तीव्रतापूर्वक सत-पूरुषार्थ करता है, वह धीरे-धीरे अपनी ज्ञानादि जी बढ़ाकर एक दिन पूर्णता के शिखर पर पहुँच सकता है और एक दिन आत्मा से परमात्मा बन सकता है। आत्मा भी पूर्ण है और परमात्मा भी पूर्ण है सामान्य आत्मा आज भले ही बाह्य दृष्टि से देखने वालों को पूर्ण परमात्मा नहीं मालूम होता हो, किन्तु वीतराग सर्वज्ञ आप्त पुरुषों की दृष्टि में उसका (आत्मा का) स्वभाव पूर्णज्ञानादिमय है, उसमें भी परमात्मत्व विद्यमान है। इसलिए वह भी निश्चयदृष्टि से पूर्ण प्रभु है । उपनिषद् में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है--- "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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