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________________ १४ | अप्पा सो परमप्पा है; तुम्हारे शरीर अलग हैं । मेरे से तुम्हारे रंग-ढंग, शैली, अवस्था आदि भले ही अलग-अलग हों, पर ये सब ऊपर-ऊपर की बातें हैं । जैसे-जैसे तुम अंतर् में उतरोगे, वैसे-वैसे ही ये भेद समाप्त होते जाएँगे । जब ऊपरऊपर की पर्ती - औपाधिक पर्तों को चीरकर अंतर्तम में डुबकी लगाओगे, तो पाओगे कि जो ज्योति मेरे अंतर् में जल रही है, वही ज्योति तुम्हारे भीतर जल रही है । ज्योति का स्वभाव एक ही है । अतः ज्ञानी पुरुष आत्मा के वास्तविक स्वभाव को देखते हैं । वे वर्तमान की अशुद्ध और विकारी आत्मा को आत्मा का यथार्थ स्वरूप नहीं बताते । पूर्णता की दृष्टि से सोचो, पूर्णता के भाव प्रकट करो सर्वज्ञ आप्त पुरुष कहते हैं कि जैसे मैं पूर्ण पवित्र सिद्ध परमात्मा हूँ, वैसे तुम (सामान्य आत्मा) भी स्वभावतः पूर्ण पवित्र परमात्मा हो, इसी प्रकार पूर्णता की दृष्टि से सोचो। और मैं पूर्ण पवित्र सिद्ध- परमात्मा हूँ । इस प्रकार दृढ़ विश्वासपूर्वक पूर्णता के भाव आत्मा में स्थापित करो, वाणी से भी प्रकट करो, तभी आत्मा पूर्णत्व को प्राप्त हो सकेगी। जिस प्रकार भूतकाल में आत्मा के ज्ञानादि पूर्णतायुक्त स्वभाव को श्रद्धापूर्वक निश्चितरूप से स्वीकार करके अनन्त मानवात्मा परमात्म दशा को प्राप्त कर चुके हैं, इसी प्रकार मैं भी पूर्ण परमात्मशक्ति - प्रभुत्वशक्ति से युक्त परमात्मा हूँ । जो स्वभाव सिद्ध- परमात्मा का है, मूल में वही स्वभाव मेरा (मेरी आत्मा का ) है । इस प्रकार स्वीकार करने से ही परमात्म दशा - पूर्णता की अवस्था प्राप्त हो सकती है । परमात्मपद प्राप्ति की ओर कदम बढ़ सकता है । 1 लौकिक व्यवहार में भी हम देखते हैं कि विवाह आदि मंगल अवसरों पर सांसारिक लोग भौतिक पदार्थों की पूर्णता के गीत गाते हैं, यथा'मोतियन चौक पुराये', 'मोतियन थाल भराये' आदि । भले ही घर में एक भी मोती न हो, किन्तु भावना तो वैभव की पूर्णता की भाते हैं । इसी प्रकार कुछ गीतों में कहा जाता है - 'हाथी झूमे द्वार पर', भले ही घर में एक गाय भी न हो । जिस प्रकार सांसारिक लोग अपनी हैसियत अल्प होते हुए १. सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं अनंतणाणादिगुण-समिद्धोऽहं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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