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परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | २८३ धन, विषयसुख के साधन, ऐश्वर्य, राज्य आदि भौतिक पदार्थ भी शरण लेने लायक नहीं हैं, क्योंकि ये भी अशान्त मानव को सुख-शान्ति प्रदान नहीं कर सकते, न ही अपना माना हुआ परिवार, परिजन, मित्र, प्रान्त, जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि शरण ग्रहणयोग्य हैं, क्योंकि ये भी आत्मिक सुख-शान्ति प्रदान नहीं कर सकते। इससे भी आगे बढ़कर मनुष्य के अत्यन्त निकटवर्ती, आत्मा के अत्यन्त सहचर शरीर, मन, बुद्धि, हृदय, वाणी, इन्द्रियाँ, प्राण, अंगोपांग आदि की भी शरण स्वीकार करने योग्य नहीं है, क्योंकि ये भी मनुष्य को विपरीत मार्ग पर ले जाते हैं, आत्मा को रागद्वषादि के चक्कर में डालकर कर्म बन्धन में डाल देते हैं, जिनसे जन्म-मरणादि के दुःख भोगने पड़ते हैं । रोग, शोक, जन्म, जरा, मरण, चिन्ता आदि दुःखों से आत्मा को ये मुक्त नहीं कर सकते ।
__ अज्ञान और मोह से ग्रस्त मानव सुख-शान्ति की आशा से बार-बार इन्हीं की शरण लेता है, और दुःखी होता रहता है। दुनिया के इन नश्वर पदार्थों से चिपटे रहने वाले मानव दुःखरूपी जल से भरे हुए इस संसारसमुद्र में डूबते रहते हैं।
मनुष्य अज्ञानवश मृत्यु की घड़ियों तक भी इन्हीं पदार्थों को अपना शरणदाता, त्राता समझता है, किन्तु क्या ये अशरण्य उसे मृत्यु के समय उसे शरण दे सकते हैं ? उसके मुख से बचा सकते हैं ? मृत्यु जब आती है, तब गाफिल मनुष्य को ऐसी गति और योनि में घसीटकर ले जाती है, जहाँ उसे पुनः अज्ञान और मोह के अन्धकार में वास्तविक शरणदाता का बोध नहीं होता, इसलिए फिर इन्हीं अंधेरी गलियों में भटकता है, उन्हीं नश्वर और अशरण्य पदार्थों की शरण स्वीकार करके दुःख पाता रहता है। मृत्यू के समय मनुष्य द्वारा आसक्ति पूर्वक तिजोरी से रखा हुआ धन यों ही बन्द पड़ा रह जाता है, वह उसको त्राण या शरण देने वाला नहीं बनता। इसीलिए शास्त्र में कहा है
वित्तण ताणं न लभे पमत्ते1 धन, साधन आदि द्रव्यों से प्रमादी मनुष्य कोई त्राण-रक्षण नहीं पाता, जो पशुधन होता है, वह भी बाड़े में पड़ा रह जाता है, वह बेचारा क्या रक्षा कर सकता है ? उसकी पत्ती घर के दरवाजे तक अपने मृत पति को शोकपूर्ण नजर से देख लेती है, वह भी उसे बचाने में विवश रहती है १ उत्तराध्ययन ४/५
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