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परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण
सांसारिक पदार्थ शरण एवं रक्षण नहीं दे सकते
संसार एक समुद्र है। उसमें सभी जीव, विशेष रूप से मनुष्य यात्रा कर रहे हैं। इस जीवन-यात्रा में मनुष्य इधर-उधर से नानाप्रकार के थपेड़े खाता फिरता है। संसारसमुद्र जन्म, जरा, मृत्यु, आधि, व्याधि, उपाधि, प्रति नानादुःखरूपी जल से भरा है। उसमें राग, द्वेष, काम, मोह, क्रोधादि कषाय, ईर्ष्या, घृणा, असन्तोष, मद, अहंताममता आदि भयंकर जलजन्तु हैं, जो संसारी जीवों को निगलने को मुँह फाड़े बैठे रहते हैं। मनुष्य भय, शोक, अशान्ति आदि से त्रस्त हैं। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच रही है। धनवान भी दुःखी हैं, और निर्धन भी। नरेन्द्र भी दुःखी है और सुरेन्द्र भी अपनी सीमा में दुःखाक्रान्त हैं । कहीं शान्ति नहीं है।
__शान्ति की शोध में मनुष्य इधर-उधर मारा-मारा फिरता है । वह सोचता रहता है-'किसकी शरण में जाएँ, जिससे शान्ति और सुख मिल सकता है ?' संसार के जितने भी सजीव या निर्जीव पदार्थ हैं, उनकी शरण सुखशान्तिपूर्ण नहीं है। अज्ञान, मोह या मिथ्यात्व से ग्रस्त मानव उनकी शरण में जाता है, किन्तु वे सुखाभास-प्रदायक मालूम होते हैं, वास्तविक सुख प्रदान नहीं कर सकते ।
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