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________________ २८० | अप्पा सो परमप्पा आदि आत्मरूप हैं ? अथवा शुद्ध, बुद्ध, ज्ञाता, द्रष्टा तथा ज्ञान-दर्शन-सुख . वीर्यमय आत्मा है ? इस प्रकार यथार्थ विश्लेषण-पृथक्करण या भेदविज्ञान करके आत्मा वस्तुतत्व का विचार है। फिर बहिरात्मभाव को छोड़ कर फिर शुद्ध आत्मभाव में स्थिर होना, अर्थात् अन्तरात्मा का परमात्म भाव में लीन,तन्मय या तादात्म्यभाव भावित हो जाना सही माने में आत्म समर्पण के वस्तुतत्व का विचार है । आत्मसमर्पण से केवलज्ञान का प्रकाश जिस प्रकार प्रकाश होते ही अन्धकार मिट जाता है, इसी प्रकार आत्म-समर्पण के स्वरूप का ज्ञानमय प्रकाश होते ही समस्त भ्रम स्वतः मिट जाते हैं। वे भ्रम हैं- शरीर और शरीर से सम्बद्ध सभो पदार्थों में आत्मबुद्धि-मैं व मेरेपन का भ्रम । ये भ्रम पैदा होते हैं-अज्ञान, मोह और मिथ्यात्व के कारण । संसारी व्यक्ति की बुद्धि पर अनादिकालीन संस्कारवश कुहासे की तरह छाये हुए अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व, दुर्ध्यान, दुश्चिन्तन, दुश्चेष्टा, संशय, भय, आशंका आदि दोष आत्मसमर्पण के तत्त्व पर गहराई से चिन्तन करते ही दूर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त आत्म समर्पणकर्ता को बहुत-से आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होते हैं -- (१) उसकी आत्मा मोहनीय आदि घाती कर्मों को आते हुए रोक (संवर कर) लेती है, (२) वह आत-रौद्रध्यान से बचकर धर्म-शुक्लध्यान में लग जाती है, (३) वह परभावों में प्रवृत्त होने की वृत्ति छोड़कर स्वभाव में प्रवृत्त होती है, रमण करती है, तथा (४) शरीर और शरीर से सम्बन्धित सभी परभावों व विभावों (दुर्भावों) के चिन्तन से हटकर आत्म-चिन्तन में अधिकाधिक जुटती है । (५) अन्त में, आत्म-समाधि प्राप्त कर लेती हैं। बुद्धि में निर्मलता, निश्चिन्तता, सद्विचार, दृढ़ निश्चय, एवं हलकेपन का अनुभव होने लगता है और मति-श्रु तज्ञान से बढ़ते-बढ़ते परमात्मा की कृपा एवं स्वकीय पुरुषार्थ से केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है । गणधर गौतम स्वामी ने इसी प्रकार आत्म-समर्पण के वस्तुतत्व का दृढ़ निश्चय करके अपने आपको सम्पूर्ण रूप से वीतराग परमात्मा तीर्थंकर महावीर के समक्ष सम. पित कर दिया था, तभी उन्हें केवलज्ञान का प्रकाश, जो प्रभु के प्रति प्रशस्तराग (मोह) के कारण रुका हुआ था, प्रकट हो गया। अन्त में, परमात्मसम्पत्ति भी प्राप्त हो जाती है इससे भी आगे बढ़कर आत्म-समर्पणकर्ता को मोक्ष या परमात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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