________________
१२ | अप्पा सो परमप्पा
'सिद्धांत पर अटल विश्वास रखकर तथा परमात्मपद को प्राप्त करने के या सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बनने के अपने बृहत् लक्ष्य से जरा भी विचलित न होकर पुरुषार्थ किया और एक दिन सर्वकर्मों से मुक्त सिद्ध परमात्मा बन गए। आत्मा से परमात्मा बनने का नुस्खा
__ इसी प्रकार आज जो सामान्य आत्मा है, वह सर्वप्रथम आत्मा का शुद्ध स्वरूप जाने कि मैं शुभाशुभ वृत्ति, प्रवृत्ति, मन, वाणी, शरीर तथा रागादि आत्म-बाह्य विकारों-विभावों एवं परभावों से सर्वथा भिन्न, शुद्ध आत्मा हैं। फिर सर्वप्रथम अपने अन्तर्मन में यह स्थिर करे कि संसार की सभी आत्माएँ अपने आप में, मूलरूप से सिद्ध परमात्मा के समान हैं, तत्पश्चात् यह दृढ निश्चय करे कि मेरो आत्मा भी सिद्ध परमात्मा के समान हैं। भले ही किसी को यह 'छोटे मुंह बड़ी बात' लगे, किंतु पूर्ण और शुद्ध स्वरूप को स्वीकार किये बिना पूर्ण का प्रारम्भ कैसे हो सकेगा? अर्थात्-जब तक सामान्य आत्मा (निश्चय दृष्टि से) सिद्ध-परमात्मा के ज्ञान-दर्शन-शक्ति-आनन्द की पूर्णता को अपने में स्थापित नहीं कर लेता, तब तक वह आत्मा परमात्मा कैसे हो सकता है ? आत्मबाह्य विषयकषायादि विभावों एवं तन-मन, वाणी तथा धन, धाम, कुटुम्ब आदि परभावों में जिनकी आत्मीय बुद्धि है, विपरीत दृष्टि है, वे ही लोग अज्ञानतावश सर्वज्ञ आप्त पुरुषों के 'अप्पा सो परमप्पा' के सिद्धांत को व्यवहार्य मानने से इन्कार करते हैं। अतः मैं (आत्मा) सिद्ध परमात्मा है, इस प्रकार दृढ़निश्चयपूर्वक विश्वास करके स्वीकार किए बिना अन्तिम (पूर्णता के) लक्ष्य तक पहुँच नहीं सकता। पूर्णता के लक्ष्य को निर्धारित अथवा अपने में सिद्ध-परमात्मा की योग्यता स्वीकृत किए बिना इस सिद्धान्त का वास्तविक प्रारम्भ नहीं हो सकता। तलहटी में खड़ा हुआ व्यक्ति यदि स्वयं को हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने में अक्षम-असमर्थ मानकर वहीं निराश, हताश, दीन-हीन बनकर बैठ जाए तो वह हिमालय के सर्वोच्च शिखर की ओर चलना भी प्रारम्भ नहीं करेगा, ऐसी स्थिति में वह हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर तो पहुँच भी कैसे सकेगा? इसी प्रकार यदि प्रथम सोपान पर खड़ा हुआ कोई व्यक्ति स्वयं को परमात्म-पदरूपी पूर्णता के शिखर पर पहुँचने में अक्षम-असमर्थ मानता है तथा स्वयं को पामर, दीन, हीन समझता है, वह आत्मबाह्य परभावरूपी सोपान से आगे ही कैसे बढ़ सकेगा ? और कैसे परमात्म-पदरूपी पूर्णता के शिखर पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org