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________________ २४६ / अप्पा सो परमप्पा सकेगा, वातावरण के द्वारा पहुँचने वाली हानि या चिन्ता, उद्विग्नता, आसक्ति आदि दुःखों से भी बचा जा सकेगा। घर की खिड़की खोल देने पर हो बाहर की हवा या सूर्य की रोशनी को अन्दर प्रवेश करने का मौका मिलता है, इसी प्रकार मन, वचन, काया का दरवाजा बंद रहे, मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति का प्रयोग किया जाए तो अवांछनीय तत्त्वों की घुसपैठ रोकी जा सकती है। अतः साधक अवांछनीय पदार्थों के संयोग के लिए आलस्य, प्रमाद, लोलुपता या भीरुता के वश मन, वचन, काया से स्वागत का थाल न सजाए किन्तु आत्मबाह्य विषय, पदार्थ या व्यक्ति के साथ मोहजनित संयोगों को अवांछनीय समझकर उनके प्रति दृढ़ता से असहमति, उपेक्षा, असहयोग या अस्वीकृति व्यक्त कर दे। मन और इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले पदार्थों या व्यक्तियों के प्रति अपनी आस्था, मान्यता या मेरेपन को प्रत्यारोपित न करे, अपनी मनःस्थिति को उनसे न जकड़े। वचन या काया से भी उस अवांछनीय परपदार्थ को अपने कब्जे (अधिकार) में करने, संग्रह करने या आसक्तिपूर्वक उसे देखने, रखने, उठाने आदि की चेष्टा या प्रयत्न न करे । जैसे कि आचागि सूत्र में कहा है1--अइअच्च सव्वसो संग ण महं अथिति इति एगो अहंमंसि-चारों ओर से संग (संयोग) से ऊपर उठकर सोचे कि वह मेरा नहीं है, मैं तो एक-अकेला ही हूँ। मानवीय इन्द्रिय संरचना की खूबी यह है कि बाहर के (विषयों या पदार्थों के) प्रभावों को अपनी मनःस्थिति को संतुलित रखकर घटाया जा सकता है । कानों में कोलाहल या कर्णप्रिय आवाज का असर न हो, इसके लिए उस ओर से ध्यान बिलकूल हटाकर या उसे अस्वीकृत करके दूसरे किसी प्रिय (आत्मध्यान या आत्मभाव र मण आदि) प्रसंग में अपने आपको तन्मय किया जा सकता है । दैनिक अखबारों के दफ्तरों के आसपास प्रेस की मशीनें, टाइप राइटर या अन्य हलचलें चलती रहती हैं, और कहीं पास के कमरे में बैठे हुए सम्पादक बिलकुल एकाग्रता से अपना लेखन कार्य करते रहते हैं, इसी प्रकार संयोगत्यागी साधक भी अवांछनीय पदार्थों से अपना ध्यान हटाकर आत्मा-परमात्मा के चिन्तन में एकाग्र हो जाए। तभी वह आत्मा अपने और परमात्मा के बीच के अन्दर को दूर कर सकेगी। १ आचारांग १/६/२/६२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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