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परमात्मा को कहाँ और कैसे देखें ? | २२५
नेत्र अभी खुले नहीं हैं, प्रभु के यथार्थ मार्ग का निर्णय करने की बुद्धि, क्षमता और शक्ति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है, वह क्या करे ? क्या वह यथार्थं वीतरागमार्ग से अनभिज्ञ किसी प्रसिद्ध, प्रभुत्वसम्पन्न पुरुष द्वारा वीतरागप्रभु के पथ के नाम से बताए हुए पथ का अनुसरण करे ? अथवा शास्त्रों में नहीं लिखी हुई कई बातों को सम्प्रदाय-परम्परा या गुरुपरम्परा से चली आती हुई पद्धति, क्रिया या विधि को परमात्मा का मार्ग मान ले ? अथवा तार्किक, तीव्र बुद्धि वाले, लच्छेदार भाषण देने वाले, त्याग-तपसंयम से रहित, किन्तु प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले किसी व्यक्ति के जोशीले वक्तव्य तथा युक्तियों से प्रभावित होकर उसी के बताए हुए मार्ग को परमात्मपथ समझ ले ? अथवा बहुत से लोग जिस मार्ग पर चल रहे हैं, उस मार्ग को परमात्मा का मार्ग समझकर चलने लगे ?
अध्यात्मपथ के पारदर्शक योगीश्वर आनन्दघनजी इसका समाधान करते हुए कहते हैं-
'पुरुष - परम्पर- अनुभव जोवतां रे, अंधो अंध पलाय | "
इसका भावार्थ यह है कि वीतराग परमात्मा के यथार्थ मार्ग को न जानने वाले किसी ख्यातिप्राप्त, प्रभावशाली, तार्किक या प्रसिद्ध वक्ता के बताये बोध से अथवा पन्थ, सम्प्रदाय या गुरुओं की परम्परा से चले आते हुए मार्गविषयक रूढिग्रस्तज्ञान को अथवा पंचेन्द्रिय विषयासक्त किसी या बहुसंख्यक प्रभावशाली व्यक्तियों के पराश्रित अनुभव से परमात्म-पथ को देखना, जान लेना भी खतरे से खाली नहीं है । इसमें गतानुगतिकता है, अन्धानुसरण है । जैसा कि सूत्रकृतांग सूत्र में कहा है
"अंधो अंधं पहं नितो, दूरमद्धाण गच्छति । आवज्जे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ॥ "a
एक अन्धा आदमी अगर दूसरे अन्धे को प्रेरित करके ले जाये तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर हटकर पृथक मार्ग पर ले जाता है, अथवा वह अन्धा प्राणी उक्त अन्धे मार्गदर्शक का अनुसरण करके उत्पथ (विपरीत मार्ग) पर जा चढ़ता है, या फिर वह अन्य मार्ग का अनुगामी बन जाता है ।
१ आनन्दघन चौबीसी अजितजिनस्तवन गा. ३
२ सूत्रकृतांग सूत्र श्रु० १, अ० १, उ०२ ।
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