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२२४ | अप्पा सो परमप्पा
वे अपनी स्थूल आँखों से प्रायः यही देखा करते हैं कि हमारे पूज्य आराध्य महापुरुष कहाँ और कैसे बैठते थे? वे सोने के सिंहासन पर बैठते थे या पाषाणशिला पट्ट पर? उनके पास इन्द्र या देव-देवी आते थे या नहीं ? वे छत्र, चामर, पुष्पवृष्टि, अशोकवृक्ष,देवदुन्दुभि, भामण्डल, स्फटिक सिंहासन आदि विविध अतिशयों या विभूतियों से युक्त थे या नहीं ? वे कैसी ऋद्धि-सिद्धि-लब्धि आदि से सम्पन्न थे ? वे वस्त्र पहनते थे या नहीं ? उनकी दिनचर्या क्या थी ? वे प्रवचन देते थे या नहीं ? 'वे कैसे ठाठ-बाट से रहते और विहार करते थे ? उनका शिष्य-शिष्या या भक्त-भक्ता परिवार कितना था ? वे दिन-रात में क्या-क्या क्रियाएँ करते थे? वे आहार-विहार नीहार आदि किस विधि से और कैसे करते थे ? उन्होंने बाह्य तपस्याएं कितनी की ! ये और ऐसी ही अन्य बातें चर्मचक्ष ओं से देखकर चर्मकर्णी से सुनकर स्थूलदृष्टि वाले लोग उन्हीं को या उन्हीं बातों का अनुसरण करने को परमात्मा का मार्ग समझ लेते हैं। इसीलिए श्री आनन्दघनजी को कहना पड़ा कि चर्मचक्ष ओं से इस बाह्य दर्शन को ही परमात्मा का मार्ग देखना समझकर प्रायः सारा भौतिक दृष्टि प्रधान संसार भूला हुआ है। परमात्मा के मार्ग को तो दिव्य विचाररूपी नेत्र से हो जाना-देखा जा सकता है । परमात्मा के मार्ग का वास्तविक तत्त्व, हार्द या रहस्य दिव्य ज्ञानचक्षु से ही जाना-देखा जा सकता है ।
परमात्मपथ का यथार्थ निर्णय करने में चर्मचक्षु सफल नहीं हो सकते। वीतराग परमात्मा के स्थूल दर्शन से उनके आध्यात्मिकमार्ग का -शुद्ध आत्म-स्वभाव का यथार्थ निर्णय कैसे हो सकता है ? स्थूल नेत्रों से आत्मा के स्वभाव-विभाव का आत्मधर्म और परभावों के धर्म का या प्रमाण-नय के भंगजाल का अथवा अंशसत्य-पूर्णसत्य का दर्शन नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त संसारमार्ग और मोक्षमार्ग (परमात्ममार्ग) दोनों का सम्यक् विश्लेषण करना भी चर्मनेत्रों के बूते से बाहर है। अतः वीतराग परमात्मा के मार्ग को यथार्थ रूप से जानने-समझने, निरखने-परखने में नय-प्रमाण रहस्यमयी दीर्घदर्शी अनेकांत संपुष्ट होनी चाहिए । शुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान, आत्मस्वभाव का सम्यक् ज्ञान ही उस दिव्य नेत्र को खोलने में समर्थ है। दिव्यदृष्टिविहीन के लिए परमात्म पथ को जानने के लिए खतरे .
यहां यह प्रश्न उठता है कि जिसके दिव्य विचार रूपी अलौकिक
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