SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ | अप्पा सो परमप्पा प्रकार से यत्र-तत्र भ्रमण करते हैं । जब तक अपनी आत्मा पवित्र, निश्छल, निर्द्वन्द्व निर्भय एवं परभावों की स्पृहा से रहित होकर अन्तर्मुखी नहीं बन जाती है, अपने अन्तर् में विराजमान शुद्ध आत्मतीर्थ को नहीं जान लेते, तब तक परमात्मतत्त्व को कैसे जान-देख सकते हैं ? किसी अनुभवी ने ठीक ही कहा है इदं तीर्थमिदं तीर्थं भ्रमन्ति तामसा जनाः । आत्मतीर्थं न जानन्ति, सर्वमेव निरर्थकम् ॥ 'यह तीर्थ है, यह भी तीर्थ है, यहाँ परमात्मा मिलेंगे, इस प्रकार सोचकर तामस ( अज्ञानी । जन भटकते हैं, परन्तु जब तक वे अपने अत्यन्त निकटवर्ती आत्मतीर्थ को नहीं जान लेते, तब तक परमात्मदर्शन के लिए तीर्थ - भ्रमण का उनका सारा श्रम निरर्थक है, सार्थक नहीं । प्रत्येक प्राणी के अन्तर में परमात्मा है, पर प्रकट नहीं परमात्मा को खोजने की यह अन्तर्यात्रा अपने आप में वास्तविक तीर्थयात्रा है । अनन्तज्ञानादि चतुष्टय से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा अनन्त है । इसलिए परमात्मतीर्थ तक पहुँचने की यात्रा भी अनन्त है, साधारणजन के लिए वह अभी अगम्य है । परन्तु जो आत्मार्थी परमात्मप्राप्ति की तीव्र उत्कण्ठा लेकर आत्मस्वभाव, आत्मगुण और आत्मस्वरूप में रमण करने की आत्म-साधना यात्रा करते हैं, उनके लिए परमात्मा गम्य है, वे ही देख-जान सकते हैं, उनके ही आत्मघट में परमात्मा प्रकट होता है । उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा है " देखीए मार्ग शिवनगर के जेह उदासीन परिणाम रे । तेह अणछोड़ता चालीए, पामीए निज परमधाम रे || " कबीर से जब पूछा गया कि परमात्मा कहाँ है ? तो उसने अपनी लाक्षणिक भाषा में कहा 'घट-घट मेरा साइया, सूनी सेज न कोय | वा घट की बलहारियां, जा घट परगट होय || ३ प्रत्येक प्राणी के हृदयघट में शुद्ध आत्मारूप परमात्मा विराजमान है । किन्तु परमात्मभाव को अभिव्यक्ति उसी घट में होती है, जिस घट में १ अमृतवेलनी सज्झाय गा. २८ २ कबीर का रहस्यवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy