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________________ परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं ? | २०६ प्रारम्भ से ही (जन्म से ही या अनादिकाल से ही) ईश्वर नहीं थे, न ही ईश्वर के अंश या प्रतिनिधिरूप अवतार (भगवान्) थे, और न अलौकिक देवता थे। अवतरण का अर्थ है-ऊपर से नीचे की ओर आना और उत्तरण का अर्थ है-नीचे से ऊपर की ओर जाना । श्रमणसंस्कृति अवतारवाद एकेश्वरवाद (सारे विश्व का एक ही ईश्वर) एवं सृष्टिकर्तृत्ववाद को नहीं मानती । उसका कहना है-अनन्त-अनन्त सिद्ध परमात्मा हुए हैं, होंगे और हैं या तीर्थंकर, केवली आदि भी अनन्त-अनन्त वीतराग परमात्मा हुए हैं, होंगे और हैं। वे सभी एक दिन हमारी ही तरह संसार के सामान्य जीव थे-कर्ममल से लिप्त, दुःख, शोक, जन्म, जरा, आधि, व्याधि आदि से सन्तप्त । इन्द्रियों के वैषयिक सुखों एवं मनःकल्पित वासनाजन्य सूखों के पीछे नाना क्लेश उठाते हुए वे जन्म-मरणादिरूप संसार में परिभ्रमण कर रहे थे । परन्तु जब उन्होंने सम्यग्दृष्टि प्राप्त की, उनकी अन्तर् की आँखें खुलीं, उन्होंने आत्मा, परमात्मा, कर्मों के आस्रव, बन्ध और संवर तथा मोक्ष के तत्त्वों को जाना, जीव-अजीव का भेद समझा, तब उन्होंने भौतिक सुखों से विरक्त होकर आध्यात्मिक सुखों के पथ पर प्रस्थान किया। आत्म-संयम एवं स्वरूपाचरण की साधना की और लगातार अनेक जन्म व्यतीत कर एक दिन देवदुर्लभ परमात्मपदप्राप्ति के योग्य मनुष्यजन्म प्राप्त किया। उन्होंने भलीभाँति जान लिया कि मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है । प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य है। देव भौतिक वैभव में चाहे मनुष्य से बढ़कर हों, आध्यात्मिक वैभव में मनुष्य से बहुत पीछे रहते हैं। हाड़-मांस का पिंजर होते हुए भी मनुष्य में अनन्त ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्तियाँ सोई हुई हैं, वह चाहे और साधना करे तो उन ज्ञानादि शक्तियों को अभिव्यक्त कर सकता है, तब वह देवों का भी देव, वीतराग परमात्मा या मुक्त परमात्मा बन सकता है। जब तक मानव कर्ममल से लिप्त है, तब तक अन्धकार से आच्छादित सूर्य के समान है। परन्तु जब वह होश में आता है, अपनी आत्म-शक्तियों को पहचान कर आत्मभावों या आत्मगुणों में रमण करने का तीव्र पुरुषार्थ करता है, परभावों को छोड़ कर स्वभाव को अपनाता है, तब उन अनन्त-अनन्त ज्ञानादि शक्तियों को अभिव्यक्त करके या तो आत्मगुणघाती चार कर्मों को नष्ट कर वीतरागसदेह परमात्मा बन जाता है या सर्वकर्मों को क्षय कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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