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________________ १६४ | अप्पा सो परमप्पा है।" आत्मार्थी साधक संसार में पुनः आने,'जन्म-मरण के, कर्मों के तथा रागद्वेषादि भावकों के बन्धन में फंसने के लिए रत्नत्रय आदि की साधना या धर्माचरण में पुरुषार्थ नहीं करता। उस महर्षियों का पराक्रम' सव्वदुक्ख पहोणट्ठा पक्कमति महेसिणो' के सूत्र के अनुसार समस्त दुःखों को नष्ट करने के लिए होता है; संसार के जन्म-मरणादि दुःखों में पड़ने के लिए नहीं। यदि जन्म-मरण से मुक्त होने के बाद भी शुद्ध मुक्त सिद्ध परमात्मा को पुनः संसार में आना पड़े तथा सांसारिक प्रपंचों में पड़कर राग-द्वषादि विकारों या कर्मों से मलिन-अशुद्ध होना पड़े तो वे ऐसी साधना करने का पुरुषार्थ या स्वरूपरमण करने का कष्ट उठाएँगे ही क्यों ? ईश्वरकर्तृत्ववादियों की युक्तिहीन भ्रामक कल्पनाएँ संसार के धर्म-सम्प्रदायों में वैदिक, इस्लाम तथा ईसाई आदि जो ईश्वर (परमात्मा) को जगत् का कर्ता-हर्ता और धर्ता मानते हैं, वे उपर्युक्त आक्षपों का युक्तिविहीन, केवल अन्धश्रद्धा से प्रेरित ऐसा समाधान करते हैं कि यह तो ईश्वर की लीला है, उसकी इच्छा हुई कि सृष्टि रचें तो सृष्टि की रचना कर दी। वह सभी प्रकार से-कर्तुमकर्तुमन्यथा कतु-करने, न करने या अन्यथा करने में समर्थ है। वह चाहे तो जगत् को उत्पन्न कर सकता है और चाहे तो बिगाड़ या विनाश कर सकता है । सब कुछ उसके हाथों में है, उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी हिल नहीं सकता। किसी ऋषि ने कहा-ईश्वर अकेला था। उसके मन में इच्छा हुई कि "मैं अकेला है, बहत हो जाऊँ । इस प्रकार ईश्वर की लीला को साक्षात् देख लो और उसकी महिमा एवं गरिमा का गुणगान करते रहो। उसके गुणगान में मस्त हो जाने से वह प्रसन्न होकर तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण कर देगा।" उनके कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर ही हमारे विचारों, भावों और कार्यों का नियंता है। उसकी इच्छा पर ही हमारे जीवन का सारा दारोमदार है । इस बात को मानकर जगन्नियता विश्वभर्ता, सृष्टिकर्ता ईश्वर पर ही सब १ उत्तराध्ययन सूत्र २ 'सोऽकामयत् असृजत् विश्वम् ।' -उपनिषद् ३ एकोऽहं बहुस्याम् । -उपनिषद् ४ 'कोई कहे लीला रे, अलख अलख तणी, लख पूरे मन-आश । --आनंदघन चौबीसी (ऋषभजिनस्तवन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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