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________________ परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं ? | १९३ यह सिद्धान्त भी परमात्मा के निरंजन, निराकार, निर्लेप, रागद्व ेषरहित, निर्विकार स्वरूप के साथ घटित या संगत नहीं होता । जब परमात्मा के कोई देह ही नहीं है, वह मुक्तपरमात्मा देहधारी ही नहीं है, शुभाशुभ कर्मों से सर्वथारहित है, जन्म-मरण से रहित हो चुका है, तब उस निराकार ईश्वर से सब प्राणी या जड़जगत् कैसे उत्पन्न हो जाएगा ? अगर ईश्वर ही सब प्राणियों को मारता - जिलाता है, तब तो किसी भी जीव को विशेषतः मनुष्य के आयुष्यकर्म का, विभिन्न गतियों और योनियों में भ्रमण करने का कोई प्रश्न ही नहीं है । न ही मनुष्य को अजर-अमर, अविनाशी परमात्मा बनने के लिए किसी भी साधना की आवश्यकता है अगर परमात्मा शुद्ध-बुद्ध, निरंजन निराकार हो गया है अथवा है तो उसे, दूसरों को उत्पन्न करने की, बनाने- बिगाड़ने की, जड़ पदार्थों को रचने की या किसी जीव को मारने- जिलाने की जरूरत ही क्या है ? क्यों सर्वकर्म मुक्त वह परमात्मा पुनः कर्मबन्धन में पड़ेगा ? क्योंकि अगर परमात्मा वीतराग है तो वह पुनः पक्षपातयुक्त होकर या राग-द्व ेष से लिप्त होकर स्वयं के या दूसरे के जन्म-मरण के प्रपंच में पड़ेगा तो कर्मबन्धन होगा ही । जब कर्मबन्धन होगा तो उसे पुनः संसार में जन्म-मरण करना पड़ेगा, चार गतियों और विभिन्न योनियों में उस मुक्त आत्मा को परिभ्रमण करना पड़ेगा, अतः निरंजन निराकार परमविशुद्ध परमात्मा का यह स्वरूप भी आत्मार्थी मुमुक्षु के लिए कथमपि अभीष्ट नहीं है, क्योंकि जितने भी आत्मार्थी या मुमुक्ष निर्ग्रन्थ या गृहस्थ साधक हैं, उनके लिए रत्नत्रय की, सद्धर्म की या स्वरूप में स्थिर होने की जितनी भी साधना-आराधनाएँ हैं, वे सब जन्म-मरणरूप संसार से, कर्मों के बन्धन से या समस्त दुःखों से सर्वथा मुक्त-परमात्मा (सिद्ध) होने के लिए है । जैसा कि दशवैकालिकसूत्र में कहा है = तं देवा असुइं असासयं, सया चए निच्चहिय-ट्ठियप्पा | छिंदित्त, जाइ-मरणस्स मूलं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई || अर्थात् - "सदैव आत्महितैषी एवं आत्मभावों में स्थिर वह भिक्षु जन्म-मरण के मूल कर्मों का, रागद्वेषादि का बन्धन तोड़कर उस अशुचिमय अशाश्वत ( अनित्य ) देहवास का सदा के लिए त्याग कर देता है और अपुनरागमनरूप सिद्ध- परमात्मा की गति (मोक्षगति) को प्राप्त कर लेता १ दशवैकालिक अ० १०/गा० २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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