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________________ १७० | अप्पा सो परमप्पा सम्यग्दृष्टि सदैव यही सोचता है कि ये मेरे द्वारा ही किये हुए दुःखरूप कर्मफल हैं । इन्हें ही मैं भोग रहा हूँ । मुझे किसी ने दुःख नहीं दिया है । ये उदयप्राप्त कर्म तो मेरे आमंत्रित अतिथि हैं । किसी को आमंत्रण देकर बुलाया हो, और वह आ जाए तो व्यक्ति को कितना आनन्द होता है । उस समय वह आमंत्रित अतिथि का कितने प्रेम और सत्कार - सम्मानपूर्वक स्वागत और आतिथ्य करता है । उस समय वह न तो ऊबता है, न घबराता है, न ही मुँह बिगाड़ता है । इसी प्रकार पूर्वकृतकर्म आमन्त्रित हैं, वे जब उदय में आते हैं तो समझे कि मेरे द्वारा आमन्त्रित अतिथि आ गये हैं, उनका प्रसन्नचित्त से स्वागत करे, मन में जरा भी संताप, विषाद या दुःख न करे । उससे मनुष्य लोक के सामान्य दुःख तो क्या, उससे भी अनन्तगुने नरकादि के तीव्र दुःख भी समभावपूर्वक भोगने से दुःखरूप - संतापरूप नहीं लगते, तथा नये कर्मों का बन्ध भी अत्यन्त कम होता है, पुराने बहुत से तथारूप कर्म भी झड़ जाते हैं । इस प्रकार वह दुःख को सुखरूप में परिणत कर लेता है । आत्मार्थी की इसी प्रकार की सम्यग्दृष्टि होती है । कर्मों और दुःखों के विषय में उसकी दृष्टि अज्ञान और मोह से ग्रस्त नहीं होती । इसी प्रकार दुःख एवं संकट से ग्रस्त व्यक्ति की दृष्टि बदल जाए तो उसे दुःख दुःखरूप नहीं लगेगा और वह किसी भी निमित्त को दोष भी नहीं देगा । आत्मार्थी यह भलीभांति हृदयंगम कर लेता है कि 'पर' का या निमित्तों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं होता। फिर भी वह एकान्त आग्रही दृष्टि का नहीं होता है कि नीचे की भूमिका में 'स्व' के साथ पर'निमित्तों का संयोग होने पर भी कुछ परिणाम नहीं आता । एकान्त निश्चयाग्रही बनकर व्यवहार में यम, नियम, संयम आदि उससे छूटते नहीं या शुभ निमित्तों की उससे उपेक्षा भी नहीं होती । आत्मार्थी सम्यग्दृष्टिसम्पन्न होकर इससे भी आगे बढ़कर सोचता है, जितने भी अशुभ कर्म उदय में आएँ, आने दो, अच्छा ही है । इतने दुःखफलदाता कर्मों का क्षय हो जायेगा, तो भविष्य में मुझे नहीं भोगने पड़ेंगे । आत्मार्थी इसी प्रकार अपनी दृष्टि बदलता है । क्षण-क्षण में होने वाली जीवन की प्रवृत्तियों, अनिष्ट संयोगों, इष्टवियोगों, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं का अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जन, जिस प्रकार मूल्यांकन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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