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आत्मार्थी को दृष्टि : परमात्मभाव को सृष्टि | १६६
शब्दग्राही होता है । वह विचारक आत्मलक्ष्यी चिन्तक नहीं होता । इसके विपरीत आत्मार्थी सरल, मध्यस्थ, जिज्ञासु, अनाग्रही, नम्र, निरभिमानी, उपशान्त कषायी एवं अनेकान्त दृष्टि सम्पन्न होता है । आत्मार्थी अपनी अनेकान्त दृष्टि से निश्चय व्यवहार, ज्ञान-क्रिया, साधन-साध्य, आत्मा के लिए साधक-बाधक आदि का निर्णय करता है । वह इन सब समस्याओं को आत्मार्थ दृष्टि से हल करता है और परमात्मपद प्राप्त करने का अधिकारी बनता है ।
आत्मार्थी का सूत्र : जंसो दृष्टि - जैसी सृष्टि
हम देखते हैं कि अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी दुःख से पीड़ित होते हैं । 1 धनाढ्य हों चाहे निर्धन, विद्वान हों चाहे मूर्ख, सत्ताधीश हों, चाहे सामान्य जन, सम्यक्दृष्टिविहीन जन दुःख से संतप्त होकर आर्तध्यान करते हैं, चिन्तित व्यथित होते रहते हैं । चारों ओर से जब अनेक दुःख संकट आकर उन्हें घेर लेते हैं, तब अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि या विवेकमूढ़ व्यक्ति प्रायः इस प्रकार के आह-भरे उद्गार निकालते हैं - मेरे जैसा दुःखी इस संसार में कोई नहीं होगा । मुझ पर जितने संकट, दुःख या कष्ट पड़े हैं, उतने जगत् में किसी पर भी नहीं पड़े होंगे । उस समय वह यह नहीं सोचता या कहता कि मैंने पूर्वजन्मों में या इस जन्म में पहले जैसे कर्म किये हैं, जितने पाप किए हैं, या दूसरों को दुःख दिये हैं, उतने दुष्कर्म किसी ने नहीं किये होंगे। मेरे ही पूर्वकृत कर्मों के ये दुःखरूप फल हैं। किसी ने ठीक कहा है
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"आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् ।"
'अपने ही लगाये हुए अपराधरूपी वृक्ष के ये फल हैं ।'
यदि वह इस दृष्टि से विचार करे कि मेरे ही द्वारा लिया हुआ यह कर्मों का ऋण है । अतः मुझे ही इस ऋण को हँसते-हंसते खुशी से चुका देना चाहिए । अन्यथा ब्याज बढ़कर कर्मरूप कर्ज अधिकाधिक बढ़ता जाएगा। मुझे ही उसके दुःखरूप फल अधिक से अधिक भोगने पड़ेंगे ।
१ देखिये --
ज्ञानी या अज्ञानीजन सुख-दु:खरहित न कोय । ज्ञानी भोगे ज्ञानसु, मूरख भोगे रोय ॥
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