SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मार्थी ही परमात्मार्थी | १६७ उन्हें अज्ञान, मोहादि रोग या कर्म-रोग से पीड़ित जानकर उन पर कमी क्षोभ, या राग (मोह)-द्वष नहीं पैदा होता, भावदया ही उत्पन्न होती है। जीवों के आधि, व्याधि-उपाधिजनित दुःखों को देखकर आत्मार्थी के अन्तर में अनुकम्पा उत्पन्न होती है। निष्कर्ष यह है कि आत्मार्थी जीव पद-पद पर आत्मजागृति से युक्त होता है, इस कारण उसकी आत्मा कर्मबन्धन में प्रायः पड़ती नहीं, पाप से लिप्त नहीं होती। कषायों तथा राग-द्वेष आदि से प्रायः कलुषित नहीं होती । सदैव सतर्क एवं सावधान रहती है। इसी कारण सहज रूप से जागी हई भावदया, अन्य प्राणियों के प्रति भी अनुकम्पा भाव से बरस जाती है । फलतः द्रव्यदया तो उसमें होती ही है। आत्मार्थी में चार लक्षण तो होते ही हैं, पाँचवां आस्था का लक्षण उसमें सहज ही होता है । आत्मा के प्रति श्रद्धा उसके रग-रग में भरी होती है । शुद्ध आत्मस्वरूप को जानने, पाने और परमात्मभाव प्राप्त करने की तीव्र भावना, आस्था उसमें कूट-कूटकर भरी होती है। आत्मा पर दृढ़ आस्था के फलस्वरूप आत्मार्थी के मन में अपनी परमात्म शक्ति पर पूर्ण विश्वास और आत्मवीर्य का उल्लास होता है। उसकी यह आस्था भी परिपक्व होती है कि मेरी परमात्मदशा मेरी आत्मा में से ही प्रकट होगी, क्योंकि मेरी आत्मा में परमात्मशक्ति भरी है। अतः उसमें से मैं अपनी परमात्मशक्ति प्रकट करके स्वल्पकाल में मोक्ष प्राप्त कर पाऊँगा । यह है-आत्मार्थी का परमात्मार्थीपन । ऐसा आत्मार्थी ही सच्चे माने में परमात्मार्थी होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy