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________________ १६६ | अप्पा सो परमप्पा है । कई आत्मा की बातें बघारने वाले व्यक्ति वाणी से तो संवेग की बातें करते हैं, परन्तु व्यवहार में सांसारिक मान-प्रतिष्ठा, सुख-साधन-सामग्री बढ़ाने की आकांक्षाएँ उनके अन्दर-बाहर खेलती रहती हैं। उनका देहभाव छूटा नहीं, उनमें मोक्षभाव जगा नहीं है। वे सिर्फ बराये नाम आत्मार्थी हैं। तीसरा लक्षण : भवभ्रमण का खेद-आत्मार्थी भवभ्रमण से सदैव विरक्त रहता है। वह भवभ्रमण के कारणों से दूर रहने का पुरुषार्थ करता है । भवभ्रमण के कारण शुभाशुभ कर्म हैं। प्रायः वह कर्मों के आगमन (आस्रव) और बन्धन (बंध) से सदा सावधान-अप्रमत्त रहने का प्रयत्न करता है। वह सोचता है-मैं अब भवभ्रमण करते-करते थक गया हूँ। मेरे जोव ने सूगति में जाकर सूख तथा दुर्गति में जाकर दुःख भोगे, किन्तु आत्मा का कुछ भी हित नहीं हुआ। मैं अनन्त-अनन्त जन्म-मरण करने के बाद भी जहाँ का तहाँ हूँ। देवलोक के सुखों की इच्छा से देवगति में भी गया, परन्तु वहाँ भी सांसारिक वैषयिक सुख परिणामस्वरूप दुःखरूप ही सिद्ध हुआ । जन्म-मरण का दुःख कम नहीं है । अतः आत्मार्थी न तो भवभ्रमण के कार्यभूत स्वर्ग, नरक, मनुष्य या तिर्यञ्च किसी भी गति में जानेआने से विरक्त हो जाता है। निर्वेद उसके जीवन का अग बन जाता है। सुगति और दुर्गति दोनों को वह परघर मान कर वहाँ जाना-रहना नहीं चाहता, वह स्व-गृह-आत्मा में ही-परमात्मभाव में ही स्थायी निवास करना चाहता है। संसार भ्रमण से उसे उदासीनता हो जाती है। वह परमात्मधाम-मोक्षधाम में ही जाने का प्रयत्न करता है । ___ चौथा गुण-प्राणिदया : अनुकम्पा-आत्मार्थी जीव समस्त प्राणियों के प्रति दया, अनुकम्पा, करुणा एवं सहानुभूति के भाव रखता है। 'सर्व जीव छे सिद्ध-सम'-सभी जीव निश्चयदृष्टि से सिद्ध-परमात्मा के समान हैं, यह स्वर्णसूत्र उसके हृदय में अंकित हो जाता है। स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माओं के विशुद्ध स्वरूप की ओर ही वह झाँकता है, उसको दृष्टि विविध पर्यायों-ऊपरी चोलों की ओर नहीं रहती । जीवों के समस्त ऊपरी अन्तर-भेद तो कर्मजन्य हैं। कोई जीव राग, द्वष आदि करता है तो यह उसके अज्ञान का परिणाम है, उसका वास्तविक स्वरूप यह नहीं है फलतः जीवों के अज्ञान पर उसे भावदया-अनुकम्पा ही उत्पन्न होती है। अन्य जीवों के वाणी, व्यवहार और विचार आत्मार्थ के विरुद्ध होने पर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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