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________________ १५८ | अप्पा सो परमप्पा रहता है, जब तक उसे यथार्थ रूप से तत्त्वार्थ-श्रद्धान् नहीं हो जाता, 'यह इसी प्रकार है' ऐसी प्रतीतिपूर्वक जीवादि तत्त्वों के स्वरूप की स्वयं को प्रतीति न हो, तथा जैसी पर्याय (शरीरादि) में अहंबुद्धि है, वैसी केवल आत्मा में 'सोऽहं' बुद्धि न हो जाए, एवं अपने परिणाम शुद्ध स्वभावरूप हैं, इस तथ्य को ठीक-ठीक पहचान न ले । ऐसा आत्मार्थी जीव आत्मार्थ की प्रारम्भिक भूमिका के रूप में सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके ही दम लेता है। एक ही कार्य : आत्मार्थ का __ आत्मार्थी के अन्तर् में एकमात्र आत्मार्थ साधने का ही लक्ष्य होता है । आत्मार्थी का वही एकमात्र कार्य होता है-इसीलिए आत्मसिद्धि में कहा है-- काम एक आत्मार्थीनें, बीजो नहिं मन-रोग मन के अनेक रोग हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि । परन्तु आत्मार्थी जीव को मन के ये कोई भी रोग तीव्र रूप से स्पर्श नहीं कर पाते । और तन के रोग तो स्पष्ट रूप से समझ में आ जाते हैं । तन में क्या पीड़ा है, क्या दुःख है, अथवा क्या व्याधि है, इसको तो सामान्य व्यक्ति भी स्वयं जान लेता है। शरीर में ज्वर आया हो, वमन होता हो, पेट दर्द हो, कब्ज हो, मस्तक दुखता हो तो व्यक्ति स्वयं समझ जाता है, वैद्य आदि भी उन रोगों के लक्षण देखकर जान लेते हैं। उपचार भी शीघ्र ही हो जाते हैं। आत्मार्थी जीव समभाव से तथा शुद्ध आत्मभाव में रमण करके शारीरिक रोग के कारणभूत कर्मों का क्षय कर देता है। अब रहा मन का रोग, यह भी निभ्नस्तर का कोई दुःसाध्य रोग आत्मार्थी के नहीं है। आत्मार्थी मन का साफ है, हठाग्रही नहीं है उसके विषय, कषाय उपशान्त होते हैं, इसलिए मन्दविकारी है। मन का कोई रोग कहो तो वह एक ही है-आत्मार्थ को प्राप्त करने की धुन । आत्मार्थी अपने मन में बहिरात्मभाव के प्रवेश को जरा भी सह नहीं सकता। उसे सांसारिक एवं बहिरात्मा के द्वारा वांछनीय कीर्ति, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, वाहवाही, जी-हजूरी आदि मानसिक रोग वांछनीय नहीं। उसके मन में धन-सम्पत्ति, कुटंम्ब १ आत्मसिद्धि गाथा ३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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