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१४२ | अप्पा सो परमप्पा
में 'मैं' और 'मेरेपन' के कारण इतना तद्रप हो जाता है कि उसे आत्मा के पृथक् अस्तित्व का भान ही नहीं रहता। मोहावृत्त होकर वह शरीर से सम्बन्धित सगे-सम्बन्धी, रिश्तेदार, मित्र आदि सजीव पदार्थों को तथा धनसम्पत्ति, जमीन-जायदाद, मकान, दुकान आदि निर्जीव पदार्थों को अपने मानता है, गाढ़ ममत्वभाव रखता है। मेरी इज्जत बढ़े, मुझे ही यश और कीति मिले, मेरा नाम प्रसिद्ध हो, मैं ही उच्च पद पर प्रतिष्ठित हो जाऊं, मेरी ही यह सब कमाई है, मेरे द्वारा ही ये सब सत्कार्य किये हुए हैं, मैं ही सर्वेसर्वा हो जाऊं, इस प्रकार रात-दिन इसी चिन्ताचक्र पर आरूढ़ रहता है; आर्तध्यान, रौद्रध्यान, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, कलह-क्लेश, आसक्ति, घृणा आदि के जाल में फंसा रहता है, आत्मा को, आत्महित और आत्मधर्म को बिल्कुल भूल जाता है । निष्कर्ष यह है कि बहिरात्मा को धर्मअधर्म, सत्य-असत्य, हित-अहित का कुछ भी विवेक या भान नहीं रहता। वह शरीरादि पर-पदार्थों को आत्मबुद्धि से पकड़कर अनात्मभूत तत्त्वों को आत्मभूत मानता है। उन्हीं में तदाकार, तन्मय हो जाता है। जिसे नाशवान् शरीर और विनश्वर पर-पदार्थों के लिए निःशंक होकर दुनिया भर के बखेड़े, झगड़े, उखाड़-पछाड़ या पाप कर्म करने में कोई संकोच या विचार नहीं होता, वह कैसे आत्मा या परमात्मा के सम्बन्ध में सोच सकता है ?
यही कारण है कि बहिरात्मा की समग्र दृष्टि, गति, मति और चेतना आत्मा से बहिर्मुख या शरीरादि पर-पदार्थों में अटकी रहती है, इसलिए विपरीत और जड़ीभूत हो जाती है । क्योंकि वह अपनी आत्मा की ओर पीठ किये हुए है, उसकी चेतना पर मोह का लौहावरण पड़ा रहता है, बुद्धि पर पर-पदार्थों के प्रति ममत्व का पर्दा पड़ा रहता है, वह अहनिश पुत्रैषणा, वित्तषणा और लोकेषणा में रचा-पचा रहता है । इसीलिए बहिरात्मा को पापरूप, अनेक दोषों से युक्त, एवं विविध आधि-व्याधि-उपाधियों से घिरा हुआ कहा गया है । आत्मा की यह दशा बहुत ही निकृष्ट है। यह आत्मा के स्वभाव में नहीं, विभावों और परभावों के प्रवाह में बहता रहता है । इसलिए बहिरात्मा मानवों का परमात्मा बनना अत्यन्त दुष्कर है। मानवात्मा का दूसरा प्रकार : अन्तरात्मा
द्वितीय श्रेणी के विकसित आत्मा को अन्तरात्मा कहा जाता है
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