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१२४ | अप्पा सो परमप्पा
लेकिन चेष्टा से नहीं, अनायास ही सोच-विचार कर, वह दूसरों को आनन्दित करने, सुखी करने की चेष्टा नहीं करता । उसके आनन्दित स्वभाव से दूसरे भी सहज ही आनन्द पाने लगते हैं ।
आत्मिक सुखसम्पन्न व्यक्ति से ही जिज्ञासु सुख प्राप्त कर सकते हैं
जो स्वयं आनन्द से ओतप्रोत है, आत्मिक सुख से युक्त है, वही दूसरों में आत्मिक सुख सम्पन्नता अथवा आनन्द को किरणें फैला सकता है, अर्थात् - उसी के आत्मिक सुख और आनन्द के परमाणु सान्निध्य में आने वालों में फैल सकते हैं, बशर्ते कि उसके हृदय का द्वार उन्हें ग्रहण करने के लिए खुला हो । रेडियो में एक समय में कई स्टेशनों से कई बातें चलती रहती हैं, किन्तु रेडियो सुनने वाला जिस स्टेशन पर रेडियो की सांकेतिक सुई लगाता है, उसी स्टेशन से रिले होने वाली बातें वह ग्रहण कर पाता है । नदी बहती रहती है, वह किसी को कहती नहीं कि तुम पानी ले लो या नहाने आदि की क्रिया कर लो; जिसकी इच्छा होती है, वह उसमें से अपने बर्तन आदि में पानी भर लेता है। जिसके पास जैसा छोटा-बड़ा बर्तन, घड़ा आदि साधन होता है, उतना भर पानी वह ले लेता है । नदी पानी से भरी होती है, तभी लोगों को वह पानी दे पाती है । बादल जब जल से भरे होते हैं, तभी वे बरसते हैं, और लोग उनसे जल प्राप्त कर पाते हैं । फूल जब सुगन्ध से भर जाता है, तभी वह अपनी सुगन्ध बिखेरता है, और भौंरे आदि उस सुगन्ध को ग्रहण कर पाते हैं । दीपक जब प्रकाश से परिपूर्ण होकर जगमगाता है, तभी लोग उसके प्रकाश से लाभ उठा पाते हैं । इसी प्रकार जिसके पास आत्मिक सुख एवं आनन्द की परिपूर्णता या प्रचुरता है, वही ग्रहण करने वाले जिज्ञासुओं में के सुख परमाणु बिखेर सकता है, दूसरों में आनन्द की लहरें फैला सकता है । वह दूसरों को सुखी करने की चेष्टा नहीं करता, न ही सुखी करने का दावा करता है । जो व्यक्ति आत्मिक सुख या आनन्द लूटना चाहते हैं, वे उससे ग्रहण करके स्वयं के पुरुषार्थ से सुखी या आनन्दित हो जाते हैं । दूसरों को सुखी करने की चेष्टा या दावा व्यर्थ
जो स्वयं अनेक दुःखों, चिन्ताओं, कामनाओं, कषायादि विकारों से दुःखाकान्त है, वह तो अपने आसपास दुःख की लहरें ही फैलाएगा दुःख के परमाणु ही बिखेरेगा; दूसरों को वह सुखी कैसे कर सकेगा ? इसलिए दूस रों को सुखी या दुःखी करने की चेष्टा या दावा व्यर्थ है ।
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