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आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | १११
दिशा बिलकुल नया मोड़ ले लेती है। अपराधी और पापात्मा मानव महात्मा बन जाता है । चिलातीपुत्र चोर, हत्यारा अर्जुनमाली, दृढ़प्रहारी, आदि इस तथ्य के ज्वलन्त प्रमाण हैं ।1
चाहे जिस प्रकार से आत्मानुभव प्राप्त हुआ हो, पूर्णता के शिखर पर, अर्थात् परमात्म-तत्व के निकट पहुँचने में सबका एक मत हो जाता है। जिन्हें जिन्हें आत्मतत्व की अपरोक्ष अनुभूति होती है, उनमें एक मूलभूत साधर्म्य आ जाता है। पन्द्रह में से किसी प्रकार से सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए परमात्मा को जैनदर्शन परमात्मा मानता है और उन सबको एक ही कोटि के, समानधर्मा मानकर पंच परमेष्ठी में उनकी गणना करके 'नमो सिद्धाणं' पद से उन्हें वन्दन-नमन करता है । देखिये कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में
यत्र यत्र समये, योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया वीतदोषकलुषः स चेद् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ।।
निष्कर्ष यह है कि किसी भी माध्यम से किसी भी जाति, लिंग, वर्ण, देश, वेश, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा, प्रान्त आदि के व्यक्ति को आत्मानुभव किसी भी रूप में हुआ हो। सभी आत्मानुभवियों के अन्तर् में एक बात उत्कीर्ण-सी हो जाती है कि अपनी (आत्मा की) तात्त्विक सत्ता शरीर और जगत से पर है, भिन्न है और उसमें = निज आत्म-स्वभाव में स्थिर होना ही परमात्मपद को प्राप्त करना है, मुक्त होना है। फलतः परिभाषाभेद की दीवार को लांघकर वे एक दूसरे के मन्तव्यों में निहित साम्य और साधर्म्य को परख सकते हैं।
__ अपनी स्वायत्त सत्ता का अनुभव प्राप्त होने के परिणामस्वरूप इन सबको एक नई जीवनदृष्टि प्राप्त होती है, जिसका प्रभाव इनके समग्र जीवन-व्यवहार पर पड़ता है । दृष्टि को विशालता और आशावादी जीवनदृष्टि आत्मानुभवी व्यक्ति के असाधारण लक्षण बन जाते हैं। परम आदर्श
१ देखिये ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, अन्तकृदशा सूत्र आदि में इनकी जीवन गाथा ।
समवायांगसूत्र समवाय १५ में तीर्थसिद्धा, अतीर्थसिद्धा, तीर्थंकरसिद्धा, अतीर्थकरसिद्धा, स्वयंबुद्धसिद्धा, प्रत्येकबुद्धसिद्धा, बुद्धबोधितसिद्धा, स्त्रीलिंगसिद्धा, पुरुषलिंगसिद्धा, नपुंसकलिंगसिद्धा, स्वलिंगसिद्धा, अन्यलिंगसिद्धा, गृहस्थलिंगसिद्धा, एकसिद्धा, अनेकसिद्धा, ये मुक्तपरमात्मा होने के १५ प्रकार हैं।
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