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२६२ | सद्धा परम दुल्लहा अल्पारम्भ का महत्त्व गृहस्थवर्ग में बढ़ा। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की उपासना करने वाले साधु-श्रावक वर्ग को इहलोक में आदरणीय, विश्वसनीय, एवं महान् समझा गया, परलोक में भी उसको सुगति या मोक्षगति प्राप्त हुई।
इसके विपरीत अक्रियावादियों ने विपरीत प्ररूपणा की कि सुकृत और दुष्कृत का फल नहीं होता। न ही शुभ कर्मों के शुभ और अशुभ कर्मों के अशभ फल मिलते हैं। आत्मा परलोक में जाकर उत्पन्न नहीं होता, जब आत्मा ही नहीं है, अथवा यहीं सारी लीला समाप्त हो जाने वाली है, इससे आगे कुछ नहीं है, जो कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है, इतना ही लोक है । खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ। परलोक की चिन्ता मत करो। जो कुछ भोग लोगे, वहो तुम्हारा है । जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके भी घी पीओ । यह शरीर यहीं भस्म हो जाने के बाद पुनरागमन कहाँ है ?
इसके फलस्वरूप अज्ञ जनता में भोगवाद की प्रबल इच्छा उठी । वे महारम्भ-महापरिग्रह में ग्रस्त रहने लगे। अक्रियावाद का अन्तिम लक्ष्य एकमात्र भौतिक सुखोपभोग रहा। वह दुष्कर्मफल की चिन्ता छोड़कर बेखटके, झूठ, चोरी, ठगी, हत्या, निरर्थक हिंसा, बेईमानी, डकैती आदि पापों में रत रहने लगा।
इस प्रकार क्रियावादी आत्मवाद, कर्मवाद और लोकवाद की पृष्ठभूमि पर अपना इहलौकिक जीवन सुधारता है-सुखमय बनाता है, शुभ कार्य करता है, धर्माचरण भी करता है; वहाँ अक्रियावादी आत्मवाद, परलोक और कर्मवाद से विमुख होकर अपने उभयलौकिक जीवन को बिगाड़ता है, पाप कर्म करता है और अपने पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक जीवन को भी दुःखमय, संक्लेशमय और निन्दनीय निकृष्ट बनाता है । अपने पीछे वंश परम्परा से पाप-परम्परा छोड़ जाता है। इसलिए भगवान ने क्रियावाद को ही आस्तिक्य की प्रमुख आधारशिला बताई है।
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