SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आस्तिक्य का चतुर्थ आधार : क्रियावाद २८७ निकल जाते हैं, वे मोक्षश्री का वरण कर लेते हैं और जो भोगपंक में मग्न हो जाते हैं. वे नरकलोक के अतिथि बन जाते हैं। वासुदेव भी अपने पूर्वजन्म में तप-संयम की मूर्ति होते हैं, किन्तु अन्तिम समय में निदान (नियाणा) करके वासुदेव-पद प्राप्त करते हैं। वासुदेव भी अनुपम ऋद्धि, सिद्धि और समद्धि के धनी होते हैं । बलदेव और वासुदेव दोनों सगे भाई होते हैं । दोनों में परस्पर अपार अनुराग, एक दूसरे से दोनों को अलग नहीं होने देता। दोनों के पिता एक होते हैं, माता अलग-अलग होती हैं। क्रियावादी इन दोनों का अस्तित्व मानते हैं, जबकि अक्रियावादी इन्हें नहीं मानते । __नरक और स्वर्ग का अस्तित्व-अक्रियावादी नरक और स्वर्ग (देवलोक) को नहीं मानते। उनका कहना है - नरक और स्वर्ग कोरी कल्पना है । मनुष्यों से दिलों में भय बिठाने और प्रलोभन देने के लिए ही नरक और स्वर्ग शब्द गढ लिये गए हैं। वास्तव में ये कुछ भी और कहीं भी नहीं हैं। नरक कहो या स्वर्ग कहो, जो कुछ कहो, सब यहीं हैं । जो लोग दुःखी हैं, वे मानो नरक में हैं और जो सुखभग्न हैं, वे स्वर्ग में हैं। परन्तु क्रियावादी इसे नहीं मानते । उनका कहना है-नरक और स्वर्ग कोरी कल्पना नहीं हैं, केवल ज्ञानी वीतराग महापुरुषों ने अपने ज्ञान के प्रकाश में देखकर बताया है कि “जो घोर पाप करते हैं, उन्हें नरक गति मिलती है, तथा जो प्रवल पूण्य करते हैं, उन्हें स्वर्ग मिलता है।" ऐसा न माना जाए तो पापरत प्राणियों को पाप करने की खुली छूट मिल जाएगी, वे सोचेंगे कि नरक तो है नहीं, फिर क्यों न खुलेआम चोरी, डकैतो, लुटपाट, व्यभिचार, ठगी आदि पाप किये जाएँ। जो लोग सेवा, दान, परोपकार आदि पुण्य कार्य करते हैं, उन्हें जब यह मालूम हो जाएगा कि पुण्य कार्य के फलस्वरूप स्वर्ग (देवलोक) नामक कोई लोक प्राप्त होने वाला नहीं। और यहाँ (मनुष्य लोक) भी पुण्य कार्य का फल नहीं मिल रहा है, ऐसी स्थिति में वे पुण्य कार्य में क्यों प्रवृत्त होगे? अतः इस लोक में किये हुए घोर पाप या तीव्र पुण्य का फल क्रमशः नरक स्वर्ग लोक के रूप में मिलता है। अतः नरक स्वर्ग को मानना अनिवार्य है । शास्त्र में देवगति प्राप्त करने के चार कारण बताए हैं -सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप । इसी प्रकार नरकगति के भी चार कारण बताए हैं -महारम्भ, महापरिग्रह, मांसाहार और पंचेन्द्रिय-वध । १. 'सरागसंयम-संयमासंयमाकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य ।' २. महारंभेण महापरिग्गहेण कुणिमाहारेण पंचेन्दिययवहेण य । ~ तत्त्वार्थ -स्थानांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy