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________________ आस्तिक्य का चतुर्थ आधार : क्रियावाद | २८१ अक्रियावादी लोक का स्वरूप, लोक का कर्तृत्व एवं उसका परिमाण विपरीत रूप में मानते हैं। अलोक को तो वे मानते ही नहीं। अथवा जो प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले देश, राष्ट्र या प्रान्त आदि हैं, उन्ही को वह लोक समझता है, परोक्षगत देवलोक, एवं नरकलोक को वह लोक ही नहीं मानता। इससे भी आगे बढ़कर कुछ शून्यवादी बन्धु लोक (जगत) को सर्वशून्य कहते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार स्वप्नलोक में विभिन्न स्वप्न दिखाई देते हैं, किन्तु आँख खुलते ही वह माया नदारद हो जाती है, सब दृश्य विलुप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार जब तक जीवन है, उसमें तेज, स्फूर्ति और चेतना है, तभी तक विश्व के चित्ताकर्षक दृश्यों की प्रतीति होती है, वह एक प्रकार का आभास - झलक है। शरीर का अन्त होते ही स्वप्नवत् संसार की वह माया लुप्त हो जाती है, कुछ भी शेष नहीं रहता, सर्वत्र शून्यता छा जातो है। जगत नाम की कोई वस्तु नहीं रहती। किन्तु भगवान महावीर ने लोक और अलोक की प्ररूपणा करते हुए शून्यवादियों की इस युक्तिहीन मान्यता का खण्डन किया है। जीव का अस्तित्व -चार्वाक एवं नास्तिक लोगों की भाँति कई लोग जीव के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, अथवा 'Cow has no soul' 'गाय के आत्मा नहीं है', एकेन्द्रिय जीवों में चेतना नहीं होती, इस प्रकार का कथन करके कतिपय मतवादी जीवों के अस्तित्व का अपलाप करते हैं, अथवा जीव को अजीव समझते हैं, वे सभी अक्रियावादी हैं। वे शरीर और आत्मा (जीव) को एक ही समझते हैं। उनका कथन है कि इस जगत् में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश में पाँच महाभुत ही तत्व हैं। इनके समुदाय से चैतन्य या आत्मा उत्पन्न होता है । पंचभूतों के नष्ट होते ही उसका भी नाश हो जाता है। अतः आत्मा (जीव) नामक कोई स्वतन्त्र पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं है । जो प्रत्यक्ष नहीं, उसे हम कैसे माने ? आत्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ इन्द्रियों और मन से प्रत्यक्ष नहीं है, तब हम उसे क्यों माने ? जिस प्रकार तिलों से तेल, अरणि की लकड़ी से अग्नि, दूध से घी उत्पन्न होता है, वैसे ही पंचभूतात्मक शरीर से जीव (चैतन्य) उत्पन्न होता है। शरीर नष्ट होने पर आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं रहती। १ (क) पृथिव्यादिभूतसंहत्यां यथा देहादिसम्भवः । मदशक्तिः सुरांगेभ्यो यत्तच्चिदात्मनि ।। -षडदर्शनसमुच्चय श्लो० ८४ (ख) पृथिव्यपस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि तत्समुदाये शरीर-विषयेन्द्रियसंज्ञाः तेभ्यश्चैतन्यम् । .- तत्त्वोपप्लव शां० भाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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